Sunday, July 12, 2020

एक स्वपन जो मुझे सोने नहीं देता। --दर्शन 'रत्न' रावण

         एक स्वपन जो मुझे सोने नहीं देता। --दर्शन 'रत्न' रावण 

सुबह जिसमें पक्षियों की चहक, आज़ान की आवाज़ और गुरुद्वार से आती परम्परागत कलसिक संगीतमय गुरवाणी यह हर इंसान को सहज ही मिल जाती है। पर ईश्वर ! क्या हम सहज इंसान भी नहीं हैं ? हमारी बस्तीएं सूअर/कुत्ते की चीत्कार, पिता/पति की गाली, दादी के दर्द की कराह और माँ की बेबस चुपी से क्यों होती है ? 


सूफी संतों की कव्वालों द्वारा गाई कव्वाली चीख-पुकार से ज्यादा कुछ सुनाई नहीं देती। जब मैं कव्वाल को यह कहते हुए सुनता,"मेरी चंगी-मंदी कज {ढक} लई मेरे मालका" तब लगा इन लाइनों से शायद अपने चीख-पुकार, दुःख-दर्द को छुपा लेने का बेहतर जरिया था जो आज भी बद्दस्तूर जारी है।

मैं बार-बार सोचता कि हाथ- पैर तो एक जैसे मिले हैं बाकि बनावट भी इंसानों की तरह ही है। फिर क्यों हमारी सुबह उस तरह से खुशनुमां नहीं जिस तरह की बाकि लोगों की होती है। मैं स्कूल जाते वक्त बड़ी रोड को छोड़ छोटी-छोटी गलियों से चलता ताकि उन घरों से आने वाली हँसी की फुहार मेरे कानों में किसी गीत की तरह रस जाए।

जैसे ही किसी घर से पिता के कंधे पर चढ़ी बेटी की उन्मुक्त बेबाक हसने की आवाज़ और माँ की प्रेम भरी डाँट कि लेट हो जाओगे या आप भी सुबह-सुबह बच्चे बन जाते हो, ये आवाज़ मेरे चहरे पर रौनक के साथ आँसू ले आती पता नहीं चलता पहले क्या आया, आँसू या ख़ुशी। मगर मेरे थके-थके क़दमों में जान आ जाती और फिर एकाएक स्कूल से लेट हो जाने की चिन्ता मुझे ले उड़ती।

रह-रह कर मन में ख्याल आता कि एक ही ज़मीन पर बसी बस्तियों में इतना अंतर क्यों ? इन तंग गलियों में हलकी-सी इंसानी महक रहती। जैसे जीवन वहीं हो। हमारी गलियों में बिना सूअर भी नरक जैसे दुर्गन्ध रहती। मानो मृत बस्ती हो जिसमें चीख-पुकार मुझे भाग जाने को कह रही हो।

हमारी बस्ती में उन मुहल्लों का कोई शख्स सुबह हमारी माँ/दादी को मालिकाना अंदाज़ में आवाज़ देने आ धमकता,"उमरी तू आई नहीं, हम मारे सड़ांध के पखाना {टॉयलेट} नहीं जा पा रहे। देख चल कर कीड़े फ़ैल रहे हैं।" माँ/दादी रुआँसा-सी कहती, "बच्चों की रोटी पका लूँ ?" वो चीखता,"रोटी छोड़ टट्टी उठा"

"रोटी छोड़ टट्टी उठा" आज अभी मैं कितनी देर से इसके आगे नहीं लिख पाया। करीब एक दिन बाद हिम्मत जुटा पाया हूँ। हो सकता है शायद आपको ये शब्द कि 'रोटी छोड़ टट्टी उठा' उलटी करवा दें। अब उस औरत के बारे में सोचे जिसे ये कहा जा रहा है। उस औरत में अपनी माँ का चेहरा बनाने की कोशिश करें। तब शायद आप कुछ महसूस कर सके।

उस वक्त बच्चों की बेबसी तो शायद आप समझ पाएं मगर उस पति के बारे में क्या कहेंगे जो बड़ी अकड़ से उसका हाथ थाम कर ले आया था और वो लड़की पिता और भाई से ज्यादा उस पर एतबार करते हुए सब छोड़ चली आई थी। शाम को शेर की तरह दहाड़ने वाला उस वक्त क्या हो जाता है ? कबूतर, भीगी बिल्ली, बेशर्म, गुलाम या कुछ और।

फिर एक दिन आदिकवि वाल्मीकि दयावान का योगविशिष्ट में लिखी पंक्ति पढ़ी। जिसमें लिखा था,"अपने ही प्रयत्न के सिवा कभी और कोई हम को सिद्धि देने वाला नहीं है।" समझते देर न लगी कि ईश्वर के दिए हाथ-पैर तो बराबर हैं बस ठीक दिशा में पुरुषार्थ करने की जरूरत है। ठीक दिशा है आदिकवि वाल्मीकि दयावान की 'कलम' जिसे लेकर बाबा साहिब कहते हैं "शिक्षित हो"

इन पंक्तियों ने उत्साह बढ़ाया और एक स्वपन देखा। देखा कि तमाम माँ की हालत देख आँखों में खून उतर आता है पर वो हमारे बस में नहीं था। अपनी बहन के लिए भी ज्यादा कुछ नहीं कर सकते लेकिन बेटियों के लिए मैं पूरी तरह जिम्मेवार हूँ और मैंने खुली आँखों से एक सपना देखा जो अब मुझे सोने नहीं देता और मैं उसे पूरा किए बिना सोना भी नहीं चाहता।

मगर स्थिति कुछ ऐसी थी कि शिक्षा के द्वार पर पहले से ही भारी भीड़ लगी थी और वो जात-पात के रोग से पीड़ित हमें यह कह कर भी रोक रहे थे कि शिक्षा तुम्हारा कर्म नहीं और या कह कर भी कि पास मत आना हम भ्रष्ट हो जाएँगे। तब वंशदानी डॉ अम्बेडकर ने एक विशेष द्वार खुलवाया। जिसका नाम रखा 'आरक्षण' जो है केवल 'प्रवेश-द्वार' आओ अब क्यों रुके हो    Old 12-7-2016

Friday, July 10, 2020

ये टंगा है कानून और मानवता --दर्शन 'रत्न' रावण

लोकतंत्र का अर्थ क्या है ? क्या लोकतंत्र का अर्थ गाँधी जी {नहीं बुद्ध के} के तीन बन्दर बन जाना है। जो न कुछ बोलें, न देखें, न सुनें। बस अपने आका {मालिक} की सुने। खाँसी भी आ जाए तो अन्दर-ही-अन्दर दम रोक कर मर जाए। 

लखनऊ शहर के चौराहों पर जो बैनर भगवांधारी सरकार ने लगाए हैं उसे देख कर आप कह सकते हैं कि सत्ता का ऐसा दुरूपयोग, लोकतंत्र का मज़ाख और संविधान की धज्जियाँ उड़ाई जा रही हैं। सत्ता और प्रशासन पर काबिज़ लोग दुश्मन देश जैसा व्यवहार भी नहीं कर रहे।   

इनका व्यवहार देख कर इनका छुपा हुआ चरित्र साफ़ सामने आ जाता है। यह एकदम वैसा ही है जैसा अक्सर खाप पंचायतें करती हैं। मगर वो अमूमन दूर-दराज़ के गांवों में होता है। अदालत हाई कोर्ट के बाद सुप्रीप कोर्ट बेहद हैरानी और शर्मिंदगी वाला फैसला सुनाता है। 

आप इन होर्डिंग को ऐसे मानिए कि ये किसी गाँव की खाप पंचायत ने जैसे दलित-आदिवासी परिवारों को बिना सुने सीधे पेड़ पर फाँसी लगा कर टांग दिया हो। यह सवाल बहुत बड़ा और बहुत दुष्परिणाम पैदा करने वाला है। न्याय-व्यवस्था से विशवास तोड़ने वाला है। 

यकीन मानीए अगर राजधानी लखनऊ की जगह कोई छोटा गाँव होता तो जिन एक्टिविस्ट की फोटो लगी है इन होर्डिंग में उन सब को पेड़ों पर टांग कर फांसी लगा दिया होता और जब जाँच-पड़ताल होने के बाद अदालत अपना फैसला सुनाती तब भी कोर्ट ऐसा ही फैसला देती जैसा अभी दिया है। 

गुरु रबिन्द्रनाथ टैगोर कहते हैं, "दंड देने का अधिकार सिर्फ उसे है जो प्रेम करता है।" इस महँ दार्शनिक के नज़रिए से अगर देखने की कोशिश करें तो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य न्यायपालिका के किसी भी तरह योग्य नहीं। जातियों की बुनियाब ही नफरत पर रखी गई है।  

न्यायपालिका पर नए सिरे से विचार करने की जरूरत है। जब सुप्रीम कोर्ट फटकार लगाया करता था तो मुझे लगता था सुप्रीम कोर्ट नैतिकता पर चोट करके सोइ हुई आत्मा को जगाने की कोशिश करता है। मगर बाद समझ आया कि यह मामले को रफ़ादफ़ा करने का एक चोर दरवाज़ा है। 

अब गोगोई ने न्यायपालिका को पूरी तरह नंगा कर दिया। ऐसा तो पाकिस्तान की न्यायपालिका भी नहीं करती जिसे हमारा सारा मीडिया असभ्य देश साबित करने में चौबीस घंटे लगा रहता है। अब देश न्याय की उम्मीद किस्रसे करे ? वैसे शायद गलती अदालत कह चुकी है कि ये देश रहने के लायक नहीं।  

मायावती किसी भी कीमत पर हमें मंजूर नहीं। --दर्शन 'रत्न' रावण

पिछले लोकसभा और विधान सभा में मुँह के बल गिरने वाली मायावती हमें किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं। एक जाति की नेता मायावती जो मोलभाव करते वक्त न वंशदानी बाबा साहिब डॉ अम्बेडकर को याद रखती है, न अपना सारा जीवन लगाने वाले मान्यवर काशीराम की परवाह करती हैं। 



इस आंदोलन की शुरुआत जहाँ तक मुझे मालूम है सामाजिक व स्वाभिमान को लेकर हुई थी। आज मिशन, सिद्धांत हैं कहाँ ? सब के सब मायावती जी के महंगे बैड के नीचे दब गए। किसी का प्रधानमन्त्री  बनना दलितोद्धार कैसे हो सकता है और वो भी वो जिसे दलितों से ज्यादा दिन-रात ब्राह्मणों की चिंता रहती हो ?

मेरे सवालों को गंभीरता से न लेकर उल्टा इनका खेमा मुझे और मेरे समाज को आरएसएस का एजेंट कहना शुरू कर देगा, जिसकी मुझे कोई चिन्ता नहीं क्योंकि हकीकत सभी जानते हैं। {मायावती और बामसेफ के भगतों के बिना} पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा को रोकने के लिए हमें मजबूरी बसपा की बात करनी पड़ी। 

ताज़ा सच्चाई यह है कि अगर मायावती जी छत्तीसगढ़ में बिना वजह अपने उम्मीदवार न उतारती तो भाजपा के 18  एम.एल.ए. नहीं केवल 3 एम.एल.ए. ही जीत पाते। अब बताइए कौन किसका मददगार या एजेंट है। यही मध्य-प्रदेश में किया। 

हम मोदी, भाजपा और आरएसएस के सख्त खिलाफ हैं और अब इसी लाइन में मायावती जी भी मानते हैं। आर्थिक आधार पर आरक्षण संविधान के विपरीत है। इसे ऐसे भी कहा जा सकता है कि विश्वज्ञान प्रतीक बाबा साहिब की सोच के एकदम उल्ट है। इसलिए मायावती जी विचारिक आरएसएस ही हैं।   

अगर यह पूछा जाये की कौन बेहतर प्रधानमंत्री हो सकता है तो मेरा मानना है कि हम प्रधानमन्त्री की बात करते वक्त अपना दिल-दिमाग पहले विशाल कर लें। हितों की बात सोचनी पाप नहीं मगर जाति व धर्म, क्षेत्र व भाषा, लिंग व रंग भेद का सोचना ठीक नहीं। 

प्रधानमन्त्री के रूप में राहुल बुरे नहीं हैं। अगर अनुभव की बात करनी है और सामाजिक न्याय को आधार मानना है तो लालू जी मेरी पहली पसँद हैं। जिस शख्स में दृढ़ता है, होंसला है संघ से लड़ने का और बेबाकी से जेल चले जाने का। तीसरा नाम शरद यादव हो सकता है। मोदी बिलकुल नहीं।     
15-01-2019      

निजीकरण काम आ रहा है या सरकारी अमला ? --दर्शन 'रत्न' रावण

करोना से बड़ी है कायरता और मक्कारी  


महाभ्रष्ट लोग जिन दो जगहों पर पाए जाते हैं वो हैं राजनीति और अफसरशाही। यही दोनों निजीकरण के ख़िलाफ़ सबसे बड़े भोंपू रहे हैं। आज जब सारा विश्व अपना  बचाने की लड़ाई लड़ रहा है, यह वो समय है जब ठीक और गलत का सारा परिणाम सामने आ जायेगा। 
 
अभी तक भारत की एक भी निजी एयर लाइन ने अपने आपको इस विकत समय के लिए पेश नहीं किया। यह नहीं कहा कि इस मुश्किल समय में हम देश या मानवता की सेवा करने को तैयार हैं। 

ठीक इसी तरह निजी हॉस्पिटल भी अभी तक खामोश हैं। किसी निजी मुनाफखोर हॉस्पिटल ने यह क्यों नहीं कहा कि हमने 100 बिस्तर का विशेष प्रबंध केवल करोना पीड़ितों के लिए कर लिया है ?

जहाँ तक सफाई कर्मचारी की बात है वो पक्की नौकरी वाला हो या दैनिक मज़दूरी वाला या ठेकेदार के शोषण का शिकार वो हर अवस्था में अपने काम पर मौजूद है। मगर यहाँ भी जाति ही शिकार है। कई-कई माह बिना वेतन के काम कर रहे हैं। 

बैंक, रेलवे सहित कई विभागों में सफाई कर्मचारी की पक्की भर्ती करते वक्त सामान्य वर्ग यानि ब्राह्मण, बनिया और ठाकुर को भी सफाई कर्मचारी की पोस्ट पर भर्ती किया। मगर जातिवाद का पक्ष लेते हुए उन्हें ऑफिस के साफ-सुथरे कामों पर लगा लिया। यह काम स्वर्ण दलित मायावती जी ने भी किया था। 

आज उन सभी को जो भी सड़कों, कूड़े की ट्राली और नालों की सफाई के लिए लगाया जाना चाहिए। सफाई दिवस और स्वच्छ भारत वालों को भी कमरों से बहार आना चाहिए। सब कुछ बेचने में लगे हैं। अगर सरकार चलनी नहीं आती तो सत्ता छोड़ दो या कायरता और मक्कारी छोड़ो। 

मुख्य सवाल निजीकरण और राष्ट्रकृत {Privatized and Nationalized} का है। हमारा देश के नेता और अधिकारी इतने महान हैं कि इन्होंने डॉक्टर और नर्सेज भी ठेके पर रखे हैं और वो सभी ईमानदारी के साथ सफाई कर्मचारी की तरह अपना फ़र्ज़ निबाह रहे हैं।  

{ग़ज़ाला ज़मील जी JNU शुक्रिया ध्यानाकर्षण के लिए}  

जाति भी बतानी पड़ी हमारे संतों को --दर्शन 'रत्न' रावण

जब कोई हमारा संत या प्रचारक मानवता  सांझीवालता की बात करता है तब मुझे ऐसा महसूस होने लगता है जैसे वो गिड़गिड़ा कर उन लोगों से कह रहा हो जिन्होनें हज़ारों सालों से हमारा शोषण और नफरत फैलाई, "मुझे अपने साथ ले लो।" 

दूसरे नज़रिए से भी अगर देखें दलित-आदिवासी के बीच में ये विचार रख कर क्या हमारे संत या प्रचारक क्या कोई नया सिद्धांत या समाधान दे रहे हैं। मेरे ख्याल से तो बिलकुल नहीं। सब एक रूप के नाम पर तो हमारी जातियें पहले ही पद-भ्रष्ट हैं। हर जगह नाक रगड़ने लगी हुई हैं। फिर नया क्या ? 

मानवता का सन्देश हमारे संत-महापुरुष पिछले 600 साल से दे रहे हैं। उसके बावजूद उन्हें उस वक्त चीख-चीख कर अपनी जाति बतानी पड़ी। देखो उनके श्लोकों में। क्यों उन्हें जाति के सवाल पर अपना पक्ष रखते हुए अपनी जातीय पहचान बतानी पड़ी। आज के संत प्रचारकों में इतनी हिम्मत भी नहीं। 

सोचना और विचारणीय यह है कि रोज़ शोषण झेल कर और यह पता है कि उनके मानवता-मानवता रटने कोई दूसरा उनको पूजनीय मानने वाला नहीं। रहेंगे वो हमारे बीच ही। रोटी भी हमारी ही खाएंगे और कपडा भी हमारा ही पहनेंगे यही नहीं धर्म-स्थल भी जातीय पहचान से बनाएंगे, फिर क्यों ?

यह सत्य है कि ईश्वर ने  इंसान को बराबर बनाया। बराबर के हाथ-पैर दिए। रंग-रूप या नैन-नक्श कुछ अलग हैं वो केवल भू-गोलीय भिन्नता के कारण और कुछ भी अलग नहीं। एक सत्य यह भी है कि ईश्वर के इंसान ने भेद-भाव बनाया। गोरों ने भारत में सारे क्लब के बहार लिखा था, "कुत्ते और भारतीय अन्दर नहीं आ सकते।"  
 
समाधान क्या है ? हमने एक संकल्प बनाया, "द्रविड़ अस्तित्व की सम्मानजनक स्वीकृति हेतु" इसे बार-बार दोहराना ही नहीं अपितु सम्मानजनक स्वीकृति कैसे हो यह प्रयास करना जरुरी है। प्रथम उच्च शिक्षा प्राप्त करना दूसरा अपने इतिहास और मर्यादा का ज्ञान। जब यह कर लेंगे तब लोग खुद हमारे साथ खड़े होना चाहेंगे।      

ईश्वर को स्वीकार और उस नेमतों का सत्कार करो --दर्शन 'रत्न' रावण


इसे क्या नाम दिया जाए ? बेबसी, असहाय, लाचारी या कोरोना ? न मालूम कितने भी शब्द चुन लें, शब्दकोष उठा लें मगर पीड़ित, घबराया हुआ और अपने अस्तित्व को ही मिटता हुआ खुद देख रहा इंसान। एक क्षण में दुनिया को मिटा देने की ताकत अर्जित कर लेने वाला इंसान बचता फिर रहा है। 
कुछ लोग अहंकार की भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं। बोल रहे हैं, "वो कहाँ है जिसकी मर्ज़ी के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता ?" इससे ज्यादा मूर्खता की बात कोई हो ही नहीं सकती। अगर अब भी इंसान अपने इस अहंकार में है। सारा विश्व मिलकर पत्ता नहीं हिला पा रहा। 

कुदरत की कृपा भी है और उसका दण्ड भी। याद कीजिए बचपन से पढ़ाया जा रहा था कि विश्वेश्वर वल्लाह वाहेगुरु कुछ नहीं। सारा जगत विकास का परिणाम है। इंसान बन्दर का विकसित रूप है। सृष्टिकर्ता का शुक्र कीजिए कि ये सच नहीं है, नहीं तो कोरोना जीवों में भी फैलता और इंसान को सोचने का समय भी नहीं देता। 

कृपा यही है कि अन्य पशु-पक्षियों में नहीं जा रहा ये कोरोना वायरस। दण्ड यह कि कुदरत के साथ छेड़छाड़ जिसने की वो भोगे। इंसान को सबसे श्रेष्ठ जीव बना कर परमेश्वर ने भेजा। दिमाग दिया कि वो पंख ना होने के बावजूद उड़ सके, अपना सुन्दर संसार बना सके। 

मगर इंसान ने अपनी इंसानियत छोड़ हैवनियात से काम लेते हुए अपना घर सुन्दर बनाने की जगह दूसरे का घर कैसे वीरान कर सकुं इस पर ज्यादा जोर लगाया। आज कोरोना उसी का परिणाम है। महाशक्तिशाली Super Power सब आज फेल नज़र नहीं आ रहा बल्कि सिद्ध हो गया। 

आदिकवि वाल्मीकि दयावान का कथन है, "संत दूसरों को दुःखों से बचाने के लिए स्वयं कष्ट सहते हैं और दुष्ट लोग दूसरों को दुःख में डालने के लिए।" विश्व के बड़े देशों के बजट पर गौर फरमाइए बजट का सबसे ज्यादा हिस्सा रक्षा उपकरणों के लिए रखा जाता है। यानि हथियारों के लिए।

विश्व को सबसे ज्यादा ऑक्सीजन देने वाले एमाजॉन के जंगलों के साथ कितना खिलवाड़ किया गया। यही काम दूसरे किनारे बसे ऑस्ट्रेलिया ने अपनी कोयला खदानों के साथ किया। परिणाम स्वरूप आग लगी और दस करोड़ जीवों की बलि। नदियों के देश भारत ने नदियों में ज़हर घोल दिया।  
 
  आदमी ने यह क्यों नहीं सोचा कि मेरे पड़ोसी के घर फूल खिलेंगे तो महक मेरे घर भी आएगी और दुर्गन्ध होगी तो उसे भी झेलना ही होगा। अपने हिस्से में आई धरती की चिन्ता कम है और मंगल गृह पर जाने की ललक ज्यादा है। ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करे। वो अनंत है, अथाह सागर है हम मात्र एक बूँद। 

इस सच को स्वीकार कीजिये और उस दयावान की दी हुई नेमतों और आदर करें। उन नेमतों में हाथ-पैर के ईलावा दिया है दिमाग। और सबसे खूबसूरत चीज़ दी सोचने की आज़ादी, कोई सीमा नहीं कोई बंदन नहीं। यह वो जगह है जहाँ जा कर आदमी से भयंकर भूल हो रही है। 

इंसान सोचने लगता है कि मैं कुछ भी करने के लिए स्वतन्त्र हूँ। स्वतन्त्र हो सोचने के लिए तो समझ भी जरुरी है। ईश्वर ने ज़मीन में लोहा रखा है तो आदमी को समझना होगा कि उस लोहे से तवा {Frying Pan} ज्यादा जरुरी है या तलवार। विद्वानों का मत है कि तलवार उठाने वालों का अंत भी तलवार से ही होता है। 

आज जिस स्थिति में विश्व है इससे बड़ी मिसाल शायद नहीं मिल सकती। जो दुसरो के लिए कब्र {Grave} खोदता है पहले उसमें खुद वही पापी गिरता है। अगर हम तमाशाई हैं तो पापी हम भी हैं। घबराने की जरूरत नहीं। उसका दिया दिमाग ठीक दिशा में लगाने की जरूरत है। आदि नित्यनेम में लिखा है,
 "ट-कहे टल जाए विपदा, पुरुषार्थ अनुसार। पुरुषार्थ के अनुसार ही, तेरा मिले प्यार।।" पुरुषार्थ का व्यापक अर्थ यह है कि उचित कर्म, सद्बुद्धि से किया कार्य।  

जब कुछ समझ न आए तब शांत और सुरक्षित बैठ कर सोचना जरुरी है। फ़िलहाल घरो में अपने आपको सुरक्षित रखना जरुरी है। इलाज़ से भी जरुरी होता है परहेज़। सारे विश्व के लोगों से अपील है अपना-अपना बचाव कीजिए इसी से विश्व बच जायेगा। हम जीतेंगे।

आदिकवि वाल्मीकि और कबीर को जान पाना अति-कठिन है।  --दर्शन 'रत्न' रावण

जब कबीर कहते हैं, "कबीरा तेरी झोपड़ी, गलकटियन के पास ! जो करेगा सो भरेगा, तू क्यों होत उदास !!" तब उसका अर्थ यह कदापि नहीं होता कि कबीर किसी की कटती हुई गर्दन को देख मुँह मोड़ रहे हैं। आप थोड़ा ध्यान से कबीर को पड़ेंगे तो खुद एहसास होने लगेगा कि कबीर कभी दुःख से मुँह मोड़ जाएँ। 


कबीर तो बीच बाज़ार में खड़े हो कर कहते हैं, "कबिरा खड़ा बाजार में, लिए लुकाठी हाथ ! जो घर जारे आपना" चले हमारे साथ !! फिर कबीर गलकटियन से मुँह मोड़ कर पलायनवादी कैसे हो सकते हैं ? वास्तव में कबीर यही तो कह रहे हैं अपने आपसे कि "तू क्यों होत उदास"

यह सवाल अंतर-आत्मा का कि कहीं कुछ गलत है। गलत है तभी तुम्हारा मन उदास हो रहा है। मगर पलायनवादी मानसिकता के लोग इसका दूसरा अर्थ कर अपने बचने की ढाल बनाना चाहते है कबीर को। पर यह संभव नहीं क्योंकि कबीर तो बेबाकी में कुछ और आगे बाद जाते हैं।

"सुरा सो पहचानिये, जो लड़े दीन के हेत ! पुर्जा पुर्जा कट मरे, क्यूं ना छाड़े खेत !!" जो पुर्जा-पुर्जा कटने को तैयार वह मैदान छोड़ जाए या मुँह मोड़ जाए यह हो ही नहीं सकता और कट-मरना भी किसी निजी रिश्ते या निजी स्वार्थ के लिए नहीं बल्कि दीन-ईमान के लिए।

आज दीन-ईमान प्राथमिकता तो रही नहीं बल्कि यूँ कहना ज्यादा उचित होगा कि द्वितीय, तृतीय या चतुर्थ भी नहीं रही। बस कभी-कभी जुमले की तरह दीन-ईमान शब्द का इस्तेमाल कर लिया जाता। हमारी जिम्मेवारी केवल अपने-आप तक या अपने परिवार तक ही सीमित नहीं होती अपितु समाज तक होती है।

एक बात हमें अपने दिल-दिमाग में ठीक से बिठा लेनी चाहिए कि हमारी शान्ति के लिए हमारा पड़ोसी भी जिम्मेवार है या यूँ कहें कि हम अपनी शान्ति के लिए पड़ोसी पर निर्भर हैं। जबकि हो यह रहा है कि हम अपना पहला दुश्मन अपने पड़ोसी को ही मानते हैं। भले बुरा हम कर रहे हो।

कबीर यह कहते मिल जाएंगे, "बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय ! जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय !!" एक मिसाल है सारे सँसार में कि अपने घर का कूड़ा पड़ोसी की छत पर गिरा दो। क्योंकि हमने ये कभी सोचा ही नहीं कि पड़ोसी की छत से उठने वाली दुर्गन्ध सबसे पहले हमारे घर में ही घुसेगी !

जैसे रामायण में आदिकवि वाल्मीकि को समझना मुश्किल हो जाता है वैसे ही कबीर को जान पाना अति-कठिन है। उसका कारण साफ है कि हम अपना-अपना पात्र चुन लेते हैं और उसकी तरफ खड़े हो जाते हैं। फिर कैसे सम्भव हो दूसरे नज़रिए को समझना। कल्पना कीजिए समग्र को कहाँ जान पाएंगे ?

कबीर सामाजिक बुराइओं पर उँगली उठाने से पहले खुद की आत्म-आलोचना भी करते दिखाई देते हैं। जीवन में यही नजरिया चाहिए और समाज में हो रही किसी भी अमानवीय बात से भागने की कोशिश न करें। अन्यथा हम अपनी संतानों के लिए एक दुर्व्यवस्था छोड़ जाएंगे।

दलित अस्तित्व की सम्मानजनक स्वीकृति हेतु !

एक स्वपन जो मुझे सोने नहीं देता। --दर्शन 'रत्न' रावण

         एक स्वपन जो मुझे सोने नहीं देता। --दर्शन 'रत्न' रावण  सुबह जिसमें पक्षियों की चहक, आज़ान की आवाज़ और गुरुद्वार से आती परम्पर...