लोकतंत्र का अर्थ क्या है ? क्या लोकतंत्र का अर्थ गाँधी जी {नहीं बुद्ध के} के तीन बन्दर बन जाना है। जो न कुछ बोलें, न देखें, न सुनें। बस अपने आका {मालिक} की सुने। खाँसी भी आ जाए तो अन्दर-ही-अन्दर दम रोक कर मर जाए।
लखनऊ शहर के चौराहों
पर जो बैनर भगवांधारी सरकार ने लगाए हैं उसे देख कर आप कह सकते हैं कि सत्ता का ऐसा दुरूपयोग, लोकतंत्र का मज़ाख और संविधान की धज्जियाँ उड़ाई जा रही हैं। सत्ता और प्रशासन पर काबिज़ लोग दुश्मन देश जैसा व्यवहार भी नहीं कर रहे।

इनका व्यवहार देख कर इनका छुपा हुआ चरित्र साफ़ सामने आ जाता है। यह एकदम वैसा ही है जैसा अक्सर खाप पंचायतें करती हैं। मगर वो अमूमन दूर-दराज़ के गांवों में होता है। अदालत हाई कोर्ट के बाद सुप्रीप कोर्ट बेहद हैरानी और शर्मिंदगी वाला फैसला सुनाता है।
आप इन होर्डिंग को ऐसे मानिए कि ये किसी गाँव की खाप पंचायत ने जैसे दलित-आदिवासी परिवारों को बिना सुने सीधे पेड़ पर फाँसी लगा कर टांग दिया हो। यह सवाल बहुत बड़ा और बहुत दुष्परिणाम पैदा करने वाला है। न्याय-व्यवस्था से विशवास तोड़ने वाला है।
यकीन मानीए अगर राजधानी लखनऊ की जगह कोई छोटा गाँव होता तो जिन एक्टिविस्ट की फोटो लगी है इन होर्डिंग में उन सब को पेड़ों पर टांग कर फांसी लगा दिया होता और जब जाँच-पड़ताल होने के बाद अदालत अपना फैसला सुनाती तब भी कोर्ट ऐसा ही फैसला देती जैसा अभी दिया है।
गुरु रबिन्द्रनाथ टैगोर कहते हैं, "दंड देने का अधिकार सिर्फ उसे है जो प्रेम करता है।" इस महँ दार्शनिक के नज़रिए से अगर देखने की कोशिश करें तो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य न्यायपालिका के किसी भी तरह योग्य नहीं। जातियों की बुनियाब ही नफरत पर रखी गई है।
न्यायपालिका पर नए सिरे से विचार करने की जरूरत है। जब सुप्रीम कोर्ट फटकार लगाया करता था तो मुझे लगता था सुप्रीम कोर्ट नैतिकता पर चोट करके सोइ हुई आत्मा को जगाने की कोशिश करता है। मगर बाद समझ आया कि यह मामले को रफ़ादफ़ा करने का एक चोर दरवाज़ा है।
अब गोगोई ने न्यायपालिका को पूरी तरह नंगा कर दिया। ऐसा तो पाकिस्तान की न्यायपालिका भी नहीं करती जिसे हमारा सारा मीडिया असभ्य देश साबित करने में चौबीस घंटे लगा रहता है। अब देश न्याय की उम्मीद किस्रसे करे ? वैसे शायद गलती अदालत कह चुकी है कि ये देश रहने के लायक नहीं।
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