कुछ लोग अहंकार की भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं। बोल रहे हैं, "वो कहाँ है जिसकी मर्ज़ी के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता ?" इससे ज्यादा मूर्खता की बात कोई हो ही नहीं सकती। अगर अब भी इंसान अपने इस अहंकार में है। सारा विश्व मिलकर पत्ता नहीं हिला पा रहा।
कुदरत की कृपा भी है और उसका दण्ड भी। याद कीजिए बचपन से पढ़ाया जा रहा था कि विश्वेश्वर वल्लाह वाहेगुरु कुछ नहीं। सारा जगत विकास का परिणाम है। इंसान बन्दर का विकसित रूप है। सृष्टिकर्ता का शुक्र कीजिए कि ये सच नहीं है, नहीं तो कोरोना जीवों में भी फैलता और इंसान को सोचने का समय भी नहीं देता।
कृपा यही है कि अन्य पशु-पक्षियों में नहीं जा रहा ये कोरोना वायरस। दण्ड यह कि कुदरत के साथ छेड़छाड़ जिसने की वो भोगे। इंसान को सबसे श्रेष्ठ जीव बना कर परमेश्वर ने भेजा। दिमाग दिया कि वो पंख ना होने के बावजूद उड़ सके, अपना सुन्दर संसार बना सके।
मगर इंसान ने अपनी इंसानियत छोड़ हैवनियात से काम लेते हुए अपना घर सुन्दर बनाने की जगह दूसरे का घर कैसे वीरान कर सकुं इस पर ज्यादा जोर लगाया। आज कोरोना उसी का परिणाम है। महाशक्तिशाली Super Power सब आज फेल नज़र नहीं आ रहा बल्कि सिद्ध हो गया।
आदिकवि वाल्मीकि दयावान का कथन है, "संत दूसरों को दुःखों से बचाने के लिए स्वयं कष्ट सहते हैं और दुष्ट लोग दूसरों को दुःख में डालने के लिए।" विश्व के बड़े देशों के बजट पर गौर फरमाइए बजट का सबसे ज्यादा हिस्सा रक्षा उपकरणों के लिए रखा जाता है। यानि हथियारों के लिए।
विश्व को सबसे ज्यादा ऑक्सीजन देने वाले एमाजॉन के जंगलों के साथ कितना खिलवाड़ किया गया। यही काम दूसरे किनारे बसे ऑस्ट्रेलिया ने अपनी कोयला खदानों के साथ किया। परिणाम स्वरूप आग लगी और दस करोड़ जीवों की बलि। नदियों के देश भारत ने नदियों में ज़हर घोल दिया।
आदमी ने यह क्यों नहीं सोचा कि मेरे पड़ोसी के घर फूल खिलेंगे तो महक मेरे घर भी आएगी और दुर्गन्ध होगी तो उसे भी झेलना ही होगा। अपने हिस्से में आई धरती की चिन्ता कम है और मंगल गृह पर जाने की ललक ज्यादा है। ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करे। वो अनंत है, अथाह सागर है हम मात्र एक बूँद।
इस सच को स्वीकार कीजिये और उस दयावान की दी हुई नेमतों और आदर करें। उन नेमतों में हाथ-पैर के ईलावा दिया है दिमाग। और सबसे खूबसूरत चीज़ दी सोचने की आज़ादी, कोई सीमा नहीं कोई बंदन नहीं। यह वो जगह है जहाँ जा कर आदमी से भयंकर भूल हो रही है।
इंसान सोचने लगता है कि मैं कुछ भी करने के लिए स्वतन्त्र हूँ। स्वतन्त्र हो सोचने के लिए तो समझ भी जरुरी है। ईश्वर ने ज़मीन में लोहा रखा है तो आदमी को समझना होगा कि उस लोहे से तवा {Frying Pan} ज्यादा जरुरी है या तलवार। विद्वानों का मत है कि तलवार उठाने वालों का अंत भी तलवार से ही होता है।
आज जिस स्थिति में विश्व है इससे बड़ी मिसाल शायद नहीं मिल सकती। जो दुसरो के लिए कब्र {Grave} खोदता है पहले उसमें खुद वही पापी गिरता है। अगर हम तमाशाई हैं तो पापी हम भी हैं। घबराने की जरूरत नहीं। उसका दिया दिमाग ठीक दिशा में लगाने की जरूरत है। आदि नित्यनेम में लिखा है,
"ट-कहे टल जाए विपदा, पुरुषार्थ अनुसार। पुरुषार्थ के अनुसार ही, तेरा मिले प्यार।।" पुरुषार्थ का व्यापक अर्थ यह है कि उचित कर्म, सद्बुद्धि से किया कार्य।
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