Friday, July 10, 2020

आदिकवि वाल्मीकि और कबीर को जान पाना अति-कठिन है।  --दर्शन 'रत्न' रावण

जब कबीर कहते हैं, "कबीरा तेरी झोपड़ी, गलकटियन के पास ! जो करेगा सो भरेगा, तू क्यों होत उदास !!" तब उसका अर्थ यह कदापि नहीं होता कि कबीर किसी की कटती हुई गर्दन को देख मुँह मोड़ रहे हैं। आप थोड़ा ध्यान से कबीर को पड़ेंगे तो खुद एहसास होने लगेगा कि कबीर कभी दुःख से मुँह मोड़ जाएँ। 


कबीर तो बीच बाज़ार में खड़े हो कर कहते हैं, "कबिरा खड़ा बाजार में, लिए लुकाठी हाथ ! जो घर जारे आपना" चले हमारे साथ !! फिर कबीर गलकटियन से मुँह मोड़ कर पलायनवादी कैसे हो सकते हैं ? वास्तव में कबीर यही तो कह रहे हैं अपने आपसे कि "तू क्यों होत उदास"

यह सवाल अंतर-आत्मा का कि कहीं कुछ गलत है। गलत है तभी तुम्हारा मन उदास हो रहा है। मगर पलायनवादी मानसिकता के लोग इसका दूसरा अर्थ कर अपने बचने की ढाल बनाना चाहते है कबीर को। पर यह संभव नहीं क्योंकि कबीर तो बेबाकी में कुछ और आगे बाद जाते हैं।

"सुरा सो पहचानिये, जो लड़े दीन के हेत ! पुर्जा पुर्जा कट मरे, क्यूं ना छाड़े खेत !!" जो पुर्जा-पुर्जा कटने को तैयार वह मैदान छोड़ जाए या मुँह मोड़ जाए यह हो ही नहीं सकता और कट-मरना भी किसी निजी रिश्ते या निजी स्वार्थ के लिए नहीं बल्कि दीन-ईमान के लिए।

आज दीन-ईमान प्राथमिकता तो रही नहीं बल्कि यूँ कहना ज्यादा उचित होगा कि द्वितीय, तृतीय या चतुर्थ भी नहीं रही। बस कभी-कभी जुमले की तरह दीन-ईमान शब्द का इस्तेमाल कर लिया जाता। हमारी जिम्मेवारी केवल अपने-आप तक या अपने परिवार तक ही सीमित नहीं होती अपितु समाज तक होती है।

एक बात हमें अपने दिल-दिमाग में ठीक से बिठा लेनी चाहिए कि हमारी शान्ति के लिए हमारा पड़ोसी भी जिम्मेवार है या यूँ कहें कि हम अपनी शान्ति के लिए पड़ोसी पर निर्भर हैं। जबकि हो यह रहा है कि हम अपना पहला दुश्मन अपने पड़ोसी को ही मानते हैं। भले बुरा हम कर रहे हो।

कबीर यह कहते मिल जाएंगे, "बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय ! जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय !!" एक मिसाल है सारे सँसार में कि अपने घर का कूड़ा पड़ोसी की छत पर गिरा दो। क्योंकि हमने ये कभी सोचा ही नहीं कि पड़ोसी की छत से उठने वाली दुर्गन्ध सबसे पहले हमारे घर में ही घुसेगी !

जैसे रामायण में आदिकवि वाल्मीकि को समझना मुश्किल हो जाता है वैसे ही कबीर को जान पाना अति-कठिन है। उसका कारण साफ है कि हम अपना-अपना पात्र चुन लेते हैं और उसकी तरफ खड़े हो जाते हैं। फिर कैसे सम्भव हो दूसरे नज़रिए को समझना। कल्पना कीजिए समग्र को कहाँ जान पाएंगे ?

कबीर सामाजिक बुराइओं पर उँगली उठाने से पहले खुद की आत्म-आलोचना भी करते दिखाई देते हैं। जीवन में यही नजरिया चाहिए और समाज में हो रही किसी भी अमानवीय बात से भागने की कोशिश न करें। अन्यथा हम अपनी संतानों के लिए एक दुर्व्यवस्था छोड़ जाएंगे।

दलित अस्तित्व की सम्मानजनक स्वीकृति हेतु !

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