जी हाँ ! कानों के भी होते है दरवाज़े। खुलते भी है और बन्द भी होते हैं। आँखों की पलकों से कुछ अलग। हमारे पूरे शरीर का कंट्रोल दिमाग के पास होता है। मगर कानों का कंट्रोल कभी-कभी हमारी नीयत के अधीन चला जाता है। यह स्थिति हमारे पूरे जीवन को तय कर देती है।
आप कक्षा में हो या सिनेमा में, आप घर में या मैदान में, आप दोस्तों के साथ हो या अपरिचितों में हर समय आप अधूरा सुनते हो या अपनी मर्जी का चुनते हो। जैसा भी हो होता यह घातक ही है। इससे हम अपना सम्पूर्ण व्यक्तित्व एक तरह से नष्ट कर लेते हैं।
IAS जैसे सर्वोत्तम एग्जाम के लिए जो प्रथम टिप्स दिए जाते हैं उनमें एक यह होता है कि अगर हम दाल-चना खा रहे हैं तो उसका कागज़ फेंकने से पहले उसे भी पढ़ लो। जितनी भाषा आपको आती हैं उन सभी में जो भी आस-पास लिखा दिखाई दे उसे पढ़ते चलो। हर जगह को निहारो। तब आप एग्जाम के लिए तैयार हो पाओगे।
ईश्वर ने कानों के शट्टर अगर नहीं लगाए तो जरूर उस सृजक की मंशा रही होगी कि हम हर आवाज़ को सुने। वो आवाज़ किसी बच्चे की है या बूढ़े की। विद्वान् की है या विद्यार्थी की। गरीब की है या अमीर की। यहाँ तक कि वो आवाज़ इंसान की है या जीव-जन्तु की। हर आवाज़ में एक पुकार भी है, ज्ञान भी और आशा भी।
परमेश्वर वाल्मीकि दयावान फरमाते हैं, "युक्तियुक्त बात तो बालक की भी मान लेनी चाहिए, लेकिन युक्ति से च्युत को तृण {तिनका} के समान त्याग देना चाहिए, चाहे वह ब्रह्मा ने क्यों न कही हो।" अब मेरी बात कुछ और आगे बढ़ गई। जैसा कि योगेश्वर वाल्मीकि त्रिकाल कह रहे हैं, युक्ति से च्युत अर्थात जिसमे कोई तथ्य और तर्क न हो उसे त्याग दो।
विश्वेश्वर वाल्मीकि करुणसागर समुन्द्र से भी गहरा ज्ञान हमें देते हैं कि सर्वप्रथम सुनो और सब कुछ सुनो। हम बिना सुने, बिना देखे कैसे फैसला कर सकते हैं किअच्छा क्या या बुरा क्या ? बुद्ध के तीन बन्दरों की तरह तो नहीं चल सकता समाज। जी हाँ वो तीन बन्दर गाँधी के नहीं बुद्धा के थे।
प्रसिद्द चित्रकार पिकासो से एक उद्योगपति अपना चित्र बनवाने आ गया। पिकासो ने बहुत मना किया मगर नहीं माना क्योंकि पैसों का घमंड था नहीं माना। आखिर पिकासो बहुत सारे पैसों और लम्बे समय के वादे के साथ मान गया।
जब उस पूँजीपति ने अपना चित्र देखा तो चिल्ला पड़ा, "किसने तुम्हें चित्रकार बना दिया ? यह चित्र या तो मेरा नहीं या अभी अधूरा है।" पिकासो ने उत्तर दिया, "नहीं जनाब यह चित्र एकदम मुक़म्मल है और आपकी शख्सियत के मद्देनज़र ही बनाया है।"
वह उद्योगपति और भड़क गया। बोलै, "तुम मेरे साथ मज़ाख कर रहे हो ? यह मेरी शख्सियत के एकदम खिलाफ है, उल्ट है। देखो इस चित्र को इसमें मेरा एक कान ही बनाया, आँख भी एक बनाई। यह हूँ मैं ? ऐसी है मेरी शख्सियत ? मुँह माँगा पैसा दिया, लम्बा समय दिया। ये क्या बना दिया ?"
पिकासो ने कहा, "शांत हो कर मेरी बात सुन लीजिए। चित्र चरित्र से बनता है। आप पूंजीपति हो। पूंजीपति को केवल अपना मुनाफा दिखाई देता है गरीब का खून और पसीना नहीं। उद्योगपति को अपने फायदे की बात सुनती है गरीब मज़दूर की चीख कभी सुनाई नहीं देती। इसलिए यह चित्र तुम्हारी शख्सियत के एकदम मेल खाता है।
आज भारत की सड़कें, मैदान, हॉस्पिटल, गली, गाँव कूचे सब जगह से चीख पुकार है। मगर पूंजीपतियों के गुलाम जो सरकार बना कर बिठा दिए गए उन्हें सब कुछ सामान्य लग रहा है। सब कुछ लाठी से कन्ट्रोल में है। देश को हुक्म दिया जाता है बुद्ध के तीन बन्दर बन जाओ। सारा मीडिया तो बन्दर बन ही चूका है।
ट्रेन को ऐसे लेट किया जा रहा है जैसे मज़दूरों को अघोषित सज़ा दी जा रही हो। प्लेट फार्म पर मरी माँ के बच्चे की पीड़ा नौटंकीबाज़ के कानों तक नहीं पहुँच सकती। भगोड़ों क़र्ज़ सरकारी कहते से दिया जा सकता है मगर मज़दूरों को खाना नहीं दिया जायेगा। है इनके आँख-कान ?
परमेश्वर वाल्मीकि दयावान क्रौंच की पीड़ा को भी महसूस करते हैं। यह ईश्वर की सत्ता को मानने वाले नहीं पैसे के पूत हैं।
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