एक स्वपन जो मुझे सोने नहीं देता। --दर्शन 'रत्न' रावण
सुबह जिसमें पक्षियों की चहक, आज़ान की आवाज़ और गुरुद्वार से आती परम्परागत कलसिक संगीतमय गुरवाणी यह हर इंसान को सहज ही मिल जाती है। पर ईश्वर ! क्या हम सहज इंसान भी नहीं हैं ? हमारी बस्तीएं सूअर/कुत्ते की चीत्कार, पिता/पति की गाली, दादी के दर्द की कराह और माँ की बेबस चुपी से क्यों होती है ?
सूफी संतों की कव्वालों द्वारा गाई कव्वाली चीख-पुकार से ज्यादा कुछ सुनाई नहीं देती। जब मैं कव्वाल को यह कहते हुए सुनता,"मेरी चंगी-मंदी कज {ढक} लई मेरे मालका" तब लगा इन लाइनों से शायद अपने चीख-पुकार, दुःख-दर्द को छुपा लेने का बेहतर जरिया था जो आज भी बद्दस्तूर जारी है।
मैं बार-बार सोचता कि हाथ- पैर तो एक जैसे मिले हैं बाकि बनावट भी इंसानों की तरह ही है। फिर क्यों हमारी सुबह उस तरह से खुशनुमां नहीं जिस तरह की बाकि लोगों की होती है। मैं स्कूल जाते वक्त बड़ी रोड को छोड़ छोटी-छोटी गलियों से चलता ताकि उन घरों से आने वाली हँसी की फुहार मेरे कानों में किसी गीत की तरह रस जाए।
जैसे ही किसी घर से पिता के कंधे पर चढ़ी बेटी की उन्मुक्त बेबाक हसने की आवाज़ और माँ की प्रेम भरी डाँट कि लेट हो जाओगे या आप भी सुबह-सुबह बच्चे बन जाते हो, ये आवाज़ मेरे चहरे पर रौनक के साथ आँसू ले आती पता नहीं चलता पहले क्या आया, आँसू या ख़ुशी। मगर मेरे थके-थके क़दमों में जान आ जाती और फिर एकाएक स्कूल से लेट हो जाने की चिन्ता मुझे ले उड़ती।
रह-रह कर मन में ख्याल आता कि एक ही ज़मीन पर बसी बस्तियों में इतना अंतर क्यों ? इन तंग गलियों में हलकी-सी इंसानी महक रहती। जैसे जीवन वहीं हो। हमारी गलियों में बिना सूअर भी नरक जैसे दुर्गन्ध रहती। मानो मृत बस्ती हो जिसमें चीख-पुकार मुझे भाग जाने को कह रही हो।
हमारी बस्ती में उन मुहल्लों का कोई शख्स सुबह हमारी माँ/दादी को मालिकाना अंदाज़ में आवाज़ देने आ धमकता,"उमरी तू आई नहीं, हम मारे सड़ांध के पखाना {टॉयलेट} नहीं जा पा रहे। देख चल कर कीड़े फ़ैल रहे हैं।" माँ/दादी रुआँसा-सी कहती, "बच्चों की रोटी पका लूँ ?" वो चीखता,"रोटी छोड़ टट्टी उठा"
"रोटी छोड़ टट्टी उठा" आज अभी मैं कितनी देर से इसके आगे नहीं लिख पाया। करीब एक दिन बाद हिम्मत जुटा पाया हूँ। हो सकता है शायद आपको ये शब्द कि 'रोटी छोड़ टट्टी उठा' उलटी करवा दें। अब उस औरत के बारे में सोचे जिसे ये कहा जा रहा है। उस औरत में अपनी माँ का चेहरा बनाने की कोशिश करें। तब शायद आप कुछ महसूस कर सके।
उस वक्त बच्चों की बेबसी तो शायद आप समझ पाएं मगर उस पति के बारे में क्या कहेंगे जो बड़ी अकड़ से उसका हाथ थाम कर ले आया था और वो लड़की पिता और भाई से ज्यादा उस पर एतबार करते हुए सब छोड़ चली आई थी। शाम को शेर की तरह दहाड़ने वाला उस वक्त क्या हो जाता है ? कबूतर, भीगी बिल्ली, बेशर्म, गुलाम या कुछ और।
फिर एक दिन आदिकवि वाल्मीकि दयावान का योगविशिष्ट में लिखी पंक्ति पढ़ी। जिसमें लिखा था,"अपने ही प्रयत्न के सिवा कभी और कोई हम को सिद्धि देने वाला नहीं है।" समझते देर न लगी कि ईश्वर के दिए हाथ-पैर तो बराबर हैं बस ठीक दिशा में पुरुषार्थ करने की जरूरत है। ठीक दिशा है आदिकवि वाल्मीकि दयावान की 'कलम' जिसे लेकर बाबा साहिब कहते हैं "शिक्षित हो"
इन पंक्तियों ने उत्साह बढ़ाया और एक स्वपन देखा। देखा कि तमाम माँ की हालत देख आँखों में खून उतर आता है पर वो हमारे बस में नहीं था। अपनी बहन के लिए भी ज्यादा कुछ नहीं कर सकते लेकिन बेटियों के लिए मैं पूरी तरह जिम्मेवार हूँ और मैंने खुली आँखों से एक सपना देखा जो अब मुझे सोने नहीं देता और मैं उसे पूरा किए बिना सोना भी नहीं चाहता।
मगर स्थिति कुछ ऐसी थी कि शिक्षा के द्वार पर पहले से ही भारी भीड़ लगी थी और वो जात-पात के रोग से पीड़ित हमें यह कह कर भी रोक रहे थे कि शिक्षा तुम्हारा कर्म नहीं और या कह कर भी कि पास मत आना हम भ्रष्ट हो जाएँगे। तब वंशदानी डॉ अम्बेडकर ने एक विशेष द्वार खुलवाया। जिसका नाम रखा 'आरक्षण' जो है केवल 'प्रवेश-द्वार' आओ अब क्यों रुके हो Old 12-7-2016
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