Wednesday, July 8, 2020

प्रेम और क्षमा, इल्म भी इलाज़ भी --दर्शन 'रत्न' रावण

प्रेम और क्षमा, इल्म भी इलाज़ भी --दर्शन 'रत्न' रावण

गलती ! यह भी बड़ा विचित्र शब्द है। अपनी हो तो, "हो जाता है" या गलती भी गलती से हो गई यार। दूसरे से हो जाए तो हज़ारों सवाल। उम्र, तालीम, रुतबा, परिवार और अक्ल सभी तरफ से तीर चलाये जाते हैं। कभी अपने आपको उसी स्थिति में रख कर भी सोचना जरुरी है।

आज हमारे एक साथी की मृत्यु उपरान्त योगविशिष्ठ पाठ की क्रिया थी। मगर कुदरत ने मौसम द्वारा और साथियों ने कोरोना का भय दिखा कर रोक लिया। मगर मेरा मन आज सारा दिन वहीँ था। एक जुझारू साथी का अचानक ऐसे रुष्ट हो कर चले जाना बहुत असहनीय है मेरे लिए।

गलती होती किस्से है ? गलती वही कर सकता है जो कुछ कर रहा है। जिसने बिस्तर पर ही पड़े रहना है उससे गलती की कोई सम्भावना ही नहीं बल्कि मैं ऐसे कहूं तो ज्यादा उचित होगा कि वो अपने आप में ही एक बड़ी गलती होता हैं और गलती कैसे गलत करेगा ?

हम सभी चाहे अनचाहे गलतियें करते हुए ही आगे बढ़ते हैं। इसीलिए इंसान को गलतियों का पुतला भी कहा जाता है। आदि-नित्यनेम में हम प्रार्थना करते हुए कहते हैं, "ढ-कहे ढोंग मनुष्य ने, रचे हैं बेशुमार। सत-पथ को न त्याग दूँ, बुद्धि दो दातार।। सत्य से भटके कि गलती हुई।

एक जगह गुरुनानक देव जी फरमाते हैं, "आपि करे सचु अखल अपारु, हऊ पापी तूँ बखसनहारु" {अंग 358} ऐसे ही परमेश्वर जिन्हें वाहेगुरु कह कर सम्बोधन किया गया वो सृजनहार वाल्मीकि मेहरबान कहते हैं, "ऐसा सोच कर दुखी न हो कि भाग्य का लिखा मिटाया नहीं जा सकता।"

जिसे आदमी बदलना चाहे, वो कौन-सा भाग्य है ? वही भाग्य होता है जो हमें दुःख दे, उसी से हम मुक्ति चाहते हैं। गुरुनानक देव जी के कथन में एकदम यही बात साफ़ समझ में आता है जब वो कहते हैं, "हऊ {हम} पापी तूँ बखसनहारु" यानि हम पाप कर सकते हैं और तुम हमें बख्श देते हो।

मेरा मन कहता है कि 'बखसनहारु' का अर्थ केवल माफ़ कर देने वाला नहीं बल्कि उससे कहीं आगे जो माफ़ भी करे और हाथ पकड़ कर राह भी दिखाए। जैसे योगेश्वर वाल्मीकि दयावान कहते हैं, "ऐसा सोच कर दुखी न हो कि भाग्य का लिखा मिटाया नहीं जा सकता।"

जब परमेश्वर नए सिरे से जीवन को आरम्भ करने की आज़ादी हमें प्रदान करते हैं तब हम क्यों खुद को परमेश्वर से भी बड़ा मान लेते हैं और एक गलती की सजा जान गवा कर चुकाने के लिए दूसरे को मजबूर कर देते हैं। या हम खुद को खुदा मान बैठते हैं जो एकदम निष्पाप है या पत्थर हो जाते है।

जब आदिकवि वाल्मीकि त्रिकाल ने क्रौंच की निर्मम हत्या पर संसार का प्रथम श्लोक कहा, "मां निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः। यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्॥"(समायण, बालकाण्ड, द्वितीय सर्ग, श्लोक 15) तब भी करुणासागर जीवन की आज़ादी नहीं छीनते।

निषाद बन विष्णु ने तो क्रौंच को मार दिया था। मगर सृष्टिकर्ता वाल्मीकि दयावान न सीता को मृत्यु देकर राम को कष्ट का एहसासात करवाते हैं न ही राम को मौत की सजा सुना खुद को निषाद की जगह खड़े करते हैं। जगतेश्वर समानरूप से इन्साफ करते हैं की एहसास होना ही जरुरी है।

गुरु रविन्द्र नाथ टैगोर भी कहते हैं, "यदि आप सभी गलतियों के लिए दरवाज़े बंद कर देंगे तो सारा सच बाहर ही रह जायेगा।" गलतियों का बाहर आना भी जरुरी है। गलतियें जब बाहर आती हैं तब अन्दर सच के लिए जगह बनती है। मगर गलती वो जो गलती से हो जाए और जब दोहराएं तो पाप।

माफ़ी की उम्मीद करना कोई पाप या नाज़ायज नहीं। मगर उससे पहले गलती मान लेनी जरुरी। जब हम अपनी किसी गलती को तस्लीम {स्वीकार} करते हैं तब दूसरी तरफ हम तालीम {शिक्षा} प्राप्त कर रहे होते हैं। यानि हमारी गुस्ताखियें हमें बहुत कुछ सीख देती हैं। इन्हें ठोकर भी कह सकते हैं।

साबसे जरुरी बात जब लगे की गलती का एहसास है तब केयर की जरूरत बहुत जरुरी है। हम न खुदा हैं, न निष्पाप। हम कानून भी नहीं हैं न न्यायाधीश। है इंसान हैं। अरस्तु कहते हैं इंसान सामाजिक प्राणी है। फिर कैसे संभव है कि इंसान बाकि इंसानों से कट कर जी ले।

मैं जब कैंट एरिया {Military Area} देखा करता था तब बचपन की सोच हुआ करती थी कि इनके साथ आम नागरिक {Civilian} क्यों बसाये जाते हैं ? ये लोग सुरक्षा को खतरा न बने। मगर बड़े होने के बाद समझ में आया कि फौज के जवानों को अपनी बस्ती/गाँव सा वातावरण लगे इसके लिए जरुरी है इनका परिवारों के आस-पास रहना।

जैसे बच्चे की रूचि खिलोने में हो सकती है मगर वह माँ-बाप की गैर-हाज़री भी सहन नहीं कर सकता। वैसे ही हम सारी उम्र अकेलपन देखते ही घबरा उठाते हैं। शायद हम इसे समझे कि प्रेम और क्षमा हमारी सांस से भी जरुरी है। परिवार की बुनियाद इन्हीं पर टिकी रहती है।

जर्मन फिलोस्फर फ्रेडरिक नीत्शे का मानना है, "वो जिसके पास जीने का कारण है कुछ भी सहन कर लेता है।" क्या है जो इंसान को सब कुछ सहन करने की ताकत बख्श देता है ? वह है परिवार या प्रेम। दूसरा है क्षमा। यह भी एक तरह की सामजिक इल्म {शिक्षा} है। जीवन की सफलता किसी हद तक इन्हीं पर निर्भर करती है।


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