Friday, July 10, 2020

वो सृष्टिकर्ता  क्र रहा है रिफ्रैश --दर्शन 'रत्न' रावण

वो सृजक भी है,
माँ की तरह ममता भरा भी,
उसे ख्याल रखना है सभी का 
एक मेरा ही क्यों 
लगता है अगर नाराज़ 
तो मेरा सोचना गलत है 
उसे पता है 
कब खाना देना है, कब दवा 
रात को माँ थपथपा कर सुलाती भी है  
और सुबह स्वप्न तोड़ उठती भी है 
जीना जागते हुए होगा, स्वप्न में नहीं 
बालक बुद्धि क्रोधित हो सकती है 
मगर माँ-बाप की चिंता में होता है 
भविष्य !
हमें आज लग रहा होगा बुरा 
डरावना और भयंकर सा 
हमने जो घर की दीवारों पर 
पेंसिल चला रखी हैं,
पलंग के नीचे जो झूठा बर्तन सरका दिया होगा 
पड़ोसी की छत पर फेंका होगा कचरा 
माँ कह कर नदियों में डाला होगा अपमा गंद 
अपना घर सुन्दर दिखाने की खातिर 
पहाड़ों की खूबसूरती नौच ली जो हमने 
बहुत-सी करप्ट फाइल हैं हमारे सिस्टम में 
अब समय आ गया  
करना होगा पूरा सिस्टम रिफ्रैश 
वो बदलेगा पुराने कपडे भी 
और सड़ी हुई चमड़ी भी 
पंख गिरेंगे
गिरेंगे नई उड़ान के लिए  
उसे याद करो और अपने गुनाहों को 
न मांगो माफ़ी 
बस याद कर लेना ! 

वर्तमान समय केवल दुःखदायी नहीं ! --दर्शन 'रत्न' रावण 

"दुःख और सुःख मात्र हमारी सोच {इच्छा}  निर्भर है।" यह केवल विचार नहीं, यह शाश्वत सत्य है जिससे हमें रुह-ब-रुह करवाया सृजक वाल्मीकि त्रिकाल ने। सृष्टिकर्ता वाल्मीकि दयावान अपनी रचना  योगविशिष्ठ में हमें यह उत्तम ज्ञान प्रदान करते हैं। 

परमेश्वर वाल्मीकि करुणासागर पावन योगविशिष्ठ में कहते हैं, "सुःख और दुःख न देह को होते हैं, न आत्मा को। अज्ञान से ही इसका अनुभव होता है।" आगे मार्ग भी बताते हुए फरमाते हैं, "सब दुखों का क्षय {नाश} करने के लिए पुरुषार्थ के अतिरिक्त दूसरा कोई मार्ग नहीं। 

अब इन ज्ञानवर्धक बातों को हम थोड़ा आसान करके और आज की कोरोना वायरस से उत्त्पन हालातों से जोड़ कर समझने की कोशिश करते हैं। हालाँकि स्थितियें सब की अपनी-अपनी हैं। तो सुःख और  अनुभव भी अपना-अपना ही होगा। समय मुश्किल है  शक नहीं।    

थोड़ा-सा अपना ध्यान कोरोना, बीमारी और मृत्यु से कर सोचिए ! क्या इतना समय जीवन में कभी मिल सकता था परिवारों के साथ। युगों से ऐसा शायद कभी हुआ हो। सारा कारोबार, मिल-इंडस्ट्री, सड़कें और रेल पटरी इतनी शांत हो जाएँगी कभी कल्पना की थी ? इसके केवल दुष्प्रभाव ही नहीं हैं।  

अगर भारत की बात करूँ, भारत में कई दशकों से सरकारें नदियों की सफाई का बजट करोड़ों-अरबों रुपयों में रखती रही। मगर परिणाम नदी तो साफ़ नहीं हुई खज़ाना साफ हो गया। अभी भारत में लॉकआउट का एक माह भी पूरा नहीं हुआ और लोग वीडियो भेज रहे हैं कि नदियों का पानी आसमानी रंग में बदल गया। 

जालंधर के न्यूज़ पेपर में छपा कि हिमाचल की पहाड़ी अब जालंधर से दिखाई दे रही हैं। यह क्या है ? यह केवल कुदरत के द्वारा ही संभव था। दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार औड/इवन द्वारा ऐसा करने का प्रयास करती रही। मगर पंजाब हरियाणा का किसान खेतों में आग लगा सब प्रयासों को निरर्थक बना देता था। 

जिस दुःख को हम सब इंसान भोग रहे हैं वह पैदा भी हमारा ही किया है। जहाँ से सारे विश्व को एक-चौथाई ऑक्सीजन मिलती थी उन जँगलों को इंसान ने ही अपने लालच के लिए उजाड़ा। ऑस्ट्रेलिया की सरकार ने पैसा कमाने के लालच में सीमा से ज्यादा कोयला निकाला, परिणाम साल भर चलने वाली आग। 

गरीब मज़दूरों को भी सड़कों पर भटकना पड़ रहा है। अधिकाँश को मैं देखता हूँ बच्चे ज्यादा साधन कम और लॉटरी की लत। अगर घर से दूर नौकरी करने आए हो तो जिससे एक-दो महीने का राशन चल जाए इतना पैसा भी बचा नहीं पाए ? इससे अच्छा तो घर पर ही रहते। 

परमेश्वर वाल्मीकि दयावान पावन योगविशिष्ठ में फरमाते हैं, "संसार में कुछ भी स्थिर नहीं है। सभी अनित्य है। जब करुणासागर विष्णु के हाथों मासूम क्रौंच की निर्मम हत्या पर साथी क्रौंच की हृदय-विदारक {Heartbreaking} पुकार सुनते हैं तब जो श्लोक उनके मुख से निकलता है। 

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः ।
यत्क्रौंच मिथुना देकमवधी काम मोहितम् ।।(वाल्मीकि रामायण, बालकाण्ड, द्वितीय सर्ग, श्लोक 15)  

यह केवल संसार का प्रथम श्लोक नहीं है। इसमें प्राकृति वो शाश्वत सत्य है कि जैसा बीजोगे {To seed} वैसा हिन् काटोगे।  हुआ विष्णु को जब राम के रूप में जन्म मिला तब क्रौंच की भांति ही सीता के वियोग में राम को ताड़ना पड़ा। मगर ईश्वर दयालु हैं और कहते हैं, "ऐसा सोच कर दुःखी न हो कि भाग्य का लिखा मिटाया नहीं जा सकता।" 

हमें अपने गुनाहों को करते हुए अपनी सोच को सार्थक दिशा में सोचना होगा। जैसे कोई अपने घर को साफ़ करने के लिए आग नहीं लगा सकता वैसे ही वो जो सृजक है सारे संसार का वो विनाशक नहीं हो सकता। सुधार रहा है वो, कुछ हम कोशिश करें सुधरने की। 

नित्य कार्य भी करो, कुछ घर की साफ़-सफाई। पत्नी के साथ रसोई में भी जाओ। और समय मिलेगा अच्छी किताबें पढ़ो। किताबें न हो तो सर्च करो मिल जाएँगी। मेरे आलावा Sukhwinder Sabharwal & Vicky Devantak की पोस्ट पढ़ो। इनमें धर्म और इतिहास की जानकारी मिलेगी 


वाल्मीकि : जीवन की तरफ उठी कलम

धर्म ! यह शब्द जैसे ही सुनने, पढ़ने में आता है हमें अलग-अलग लिबास दिखाई देने लगते हैं। कोई चोटी रखे हुए दिखाई देता है, कोई पूरा सिर मुंडवाए हुए, किसी में पगड़ी रखी हुई है तो कोई टोपी पहने नज़र आता है। कोई उज्जवल कपड़ों में लिपटा हुआ तो कोई राख मले नंगा है। इस पर सृष्टिकर्ता वाल्मीकि योगेश्वर कहते हैं........ 
          
"कई महत्वाकांक्षा में पढ़ कर घर बार छोड़कर सन्यासी हो जाते हैं, कर्म छोड़ देते हैं, वेश बदल लेते हैं, शरीर पर राख लगा कर, नग्न हो कर त्यागी, तपस्वी होने का दंभ करते हैं, किन्तु इसका त्याग, वैराग्य, चित्त-शुद्धि एवं आत्म-ज्ञान से कोई सम्बन्ध नहीं है।" 

आपकी आँख बन्द है या खुली यह धर्म नहीं। आप दुआ के वक्त झुक जाते हो या उठ कर आकाश की तरफ देखने लगते हो यह रिवाज़ हो सकता है। या किसी की बनाई परम्परा हो सकती है धर्म तो बिलकुल नहीं है यह। हाँ ! धर्म से सम्बन्धित हो सकता है मगर धर्म नहीं। योगविशिष्ट में आदिकवि वाल्मीकि लिखते हैं........ 

"जिनको त्यागी, सन्यासी, आत्मज्ञानी होने का झूठा भ्रम हो गया है कि मैं शरीर नहीं हूँ, आत्मा हूँ, मैं त्यागी हूँ, तपस्वी हूँ, सन्यासी हूँ, मैं ईश्वर ही हूँ आदि, ऐसे व्यक्ति महा-अन्धकार में भटकते रहते हैं। अपने स्वभाव के अनुकूल व्यवहार करने से पाखंड नहीं होता तथा उसकी दुर्गति भी नहीं होती।"   

वो जो अछूत, निर्लेप है कमल की भाँति वही फैसला करेगा कि धर्म है क्या ? कमलेश्वर वाल्मीकि विश्वेश्वर कहते हैं धर्म सीखने की एक प्रक्रिया है। जिसमें माँ होती है प्रथम गुरु। जैसे जैसे हम जैसा जैसा सीखते चले जाते हैं वैसा ही हमारा स्वभाव तैयार होने लगता है। हमारा स्वभाव ही हमारा धर्म है। अच्छा भी हो सकता है बुरा भी।   

योगविशिष्ट की यही बातें कबीर, रविदास, नामदेव, नानक, पीपा, फरीद, बुल्लेशाह आदि सभी के स्वभाव में थी। इन पाक रूहों ने न कोई वेश बनाया, न ऐसा करने को कहा। कहा क्या ? कहा कि सच के लिए बीच चौराहे पर खड़े हो जाओ, फिर कोई साथ आए या न आए। संक्षिप्त-सा दर्शन करते हैं और योगविशिष्ट का।   

"संसार से पार होने का एक मात्र उपाय ज्ञान है। तप, दान, तीर्थ आदि उपाय नहीं है।"     

"निर्वाण नाम वाला परम आनन्द 'ज्ञान' से ही प्राप्त होता है।"

"हमारी इच्छा ही वस्तु से सुख का आभास उत्पन्न कराती है।" 

"सब इच्छाओं से अलग होकर जो चित्त का क्षीण हो जाना है, उसे मोक्ष कहते हैं।" 

"आत्मज्ञान के बिना शांति नहीं हो सकती।"

"चित्त की शान्ति और समता तो योग से प्राप्त होती है, न की कामेन्द्रियों को स्थगित कर देने से।" 

"सब दुखों का क्षय {समाप्त} करने के लिए पुरुषार्थ के अतिरिक्त दूसरा कोई मार्ग नहीं है।"

"जो उद्योग को छोड़ कर भाग्य पर भरोसा करते हैं वे अपने ही दुश्मन है।"

"दैव मूर्ख लोगों की कल्पना है। बुद्धिमान लोग पुरुषार्थ द्वारा उन्नति करके अच्छे पद प्राप्त करते हैं।

"जीने और चेतन होने के कारण ही यह ;जीव' कहलाता है। पुरुषार्थ के के कारण ही जीव 'पुरुष' कहलाता है।"  

"यदि संसार में आलस्य रुपी अनर्थ न होता तो कौन धनी और विद्वान् न होता।"
         
"अपने ही प्रयत्न के सिवा कभी और कोई हमको सिद्धि देने वाला नहीं है।" 

"ऐसा विचार करके दुखी न हो कि भाग्य का लिखा मिटाया नहीं जा सकता।" 

"पुरुषार्थ के चार क्रम होते हैं, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष।"

"शम, संतोष, साधु-संग {योगामृत} और विचार ये मोक्ष के चार द्वारपाल हैं जो मोक्ष रुपी महल का दरवाजा खोल देते हैं।"

"कर्म ही पुरुष है और पुरुष ही कर्म है। ये दोनों इस प्रकार अभिन्न हैं जैसे बर्फ और उसकी शीतलता।" 

"गुरु के उपदेश और शास्त्र के अध्ययन से भी आत्म-ज्ञान नहीं होता। अधिकारी, {उचित पात्र} शास्त्र और गुरु तीनों का संयोग होने पर ही आत्मानुभव का प्रकाश होता है।"
कुपात्र को सत्य का ज्ञान नहीं दिया जा सकता। 

"किसी के लिए योग मार्ग कठिन है, किसी के लिए ज्ञान मार्ग। ज्ञान निश्चय का अभ्यास ज्यादा सुगम है।"

"चित्त को शान्त करने के दो उपाय हैं। एक 'योग' और दूसरा 'ज्ञान'। योग का अर्थ है 'चित्त की वृतियों का निरोध {प्रतिरोध} करना और ज्ञान का अर्थ है यथा स्थिति वास्तु को जानना।"

"युक्तियुक्त बात तो बालक की भी मान लेनी चाहिए, लेकिन युक्ति से च्युत को तृण के समान त्याग देना चाहिए, चाहे वह ब्रह्मा ने क्यों न कही हो।" 

"जिस प्रकार ब्रह्मा की उत्पत्ति होती है उसी प्रकार कीड़े की होती है। ब्रह्मा से लेकर चींटी तक सब जीवों का लय केवल सद्ज्ञान द्वारा ही होता है।"   

"जैसे सूर्य दिन के कामों का कारण है वैसे ही ईश्वर कुछ करता हुआ भी सब कुछ करता है। आदि और अन्त में जो नित्य है वही 'सत्य' है। दूसरा नहीं।"

"ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय, दृष्टा, दर्शन और दृश्य तथा कर्ता, कारण और क्रिया इन सबका जिनसे ही आविर्भाव {प्रकट होना} होता है, उन ज्ञान-स्वरूप परमात्मा को नमस्कार है।"   

जैसे बालक को वास्तव में न होता हुआ भूत मौत तक का दुःख देता है, वैसे ही मूड बुद्धि वाले के लिए यह जगत दुःख देने वाला है।"  

"जब मन विषय से गर्भित होता है, तब वह 'मन' कहलाता है। जब मन निश्चय को धारण करता है तो बुद्धि कहलाता है। 'मैं हूँ' इस भावना के होने पर मन 'अहंकार' कहलाता है। जब मन विषय का चिंतन करता है तब वह 'चित्त' कहलाता है।        

"जिसमें बुद्धि का पूरा प्रकाश नहीं हुआ है उसे 'सब कुछ ईश्वर है' का उपदेश नहीं करना चाहिए क्योंकि वह भोग की दृष्टि से इसे काम में लेकर नाश  प्रवृत होगा।"  

"जिस मार्ग से जिस मानव की उन्नति होती है, उस मार्ग से चले बिना उसकी गति न शोभा देती है, न सुख देती है, न उसके हित के लिए है और न उत्तम फल देने वाली है।"  
मृत्यु और जन्म दोनों समय इसे कहा जा सकता है। 

सागर के कुछ मोती मैंने कोशिश की उनसे बिखरती किरणें हमारा दिमाग रोशन कर दें। आप जैसे-जैसे इन्हें बार-बार पढ़ोगे वैसे हर बार एक दिशा, नया होंसला भी मिलेगा और यह भी आभास हो सकता है कि इनमें से कुछ पहले भी कहीं सुना है। जरूर ऐसा ही होगा और होना भी चाहिए। 

सारे जगत में पावन योगविशिष्ट का ही ज्ञान प्रकाशमान है। इच्छाओं और दुःख की यही बातें करते आपको बुद्ध मिल सकते हैं। वह ज्ञान माँ सुजाता ने दिया था बुद्ध को। जब बुद्ध मात्र एक शंकाओं में फंसे हुए राजकुमार थे तब माँ सुजाता ने योगविशिष्ट का जो ज्ञान अर्जित कर रखा था वह बुद्ध को दिया। 

एक शब्द गुरुवाणी में अंकित है, "रे मन ऐसो करि सन्यासा.........  इसको जब आप पूरी शिद्दत के साथ श्रवण करोगे और योगविशिष्ट में दी गई संत-संन्यास की परिभाषा का अध्ययन करोगे तब सद्बुद्धि कहेगी कि एक ही विचार है। केवल दो भाषाओं में कहा गया है। 

मानवता को प्रमुख रख कर जिसने भी धर्म की बात की उसका झुकाव स्वभाविक रूप में पावन  योगविशिष्ठ की तरफ चला गया। हिन्दी ग्रन्थ अकादमी राजस्थान ने अपने शोध ग्रन्थ 'संत कबीर' {वर्ष 2000} के पृष्ठ 44 पर लिखा है, " योगविशिष्ठ ने प्रत्येक भारतीय संत तथा उनकी काव्य वाणी को प्रभावित किया है।"  

इसी 'संत कबीर' शोध ग्रन्थ में लिखा है, " योगविशिष्ठ की अमृत वाणी से भाव-विभोर हो कर ऋषि, मुनि तथा संतों ने 'अमृतानुभव' लिया।" तमाम विद्वानों का मत है, "जो बातें इस योगविशिष्ठ में हैं वे ग्रन्थों में भी मिलेंगी। जो इसमें नहीं है वे कहीं नहीं मिलेंगी। विद्वान् योगविशिष्ठ को सब विज्ञानं-शास्त्रों का कोष कहते हैं।"  

इसी विषय पर यह मेरा दूसरा प्रयास है। इससे पहले "आदिकवि वाल्मीकि के कुशी-लव क्यों हुए रक्षस से भंगी" सवाल जवाब बना कर लिखी थी। कोशिश तब भी यही थी कि जिसकी कलम से पाखण्ड पर प्रहार हुआ, जिसने निष्पक्ष भाव से धर्म के मायने दिए उसे ही शंकाओं के घेरे में खड़ा करने का दुःसाहस किया जा रहा है। 

कोई पूरी जाति, कौम या मज़हब न एकदम गलत हो सकता है न ही उसके सारे लोग ठीक हो सकते हैं। जैसा कि परमेश्वर वाल्मीकि दयावान कहते, "हमारा स्वभाव ही हमारा धर्म है। जो अच्छा और बुरा कुछ भी हो सकता है। इसलिए जो लोग करुणासागर वाल्मीकि दयावान पर सवाल उठाते हैं व्ही गलत हैं कोई जाति नहीं। ऐसे साज़िशी लोग वाल्मीकि कौम में भी हैं। 

किसी के मन को ठेस लगे तो मुझे अफ़सोस है किन्तु मेरा उद्दम मात्र इतना है कि उचित व प्रामाणिक तथ्यों को जनसाधारण के आगे रखूं। हिम के समान निर्मल और निष्पाप विश्वेशर वाल्मीकि दयावान की छवि को न हम दूषित कर सकते हैं न स्वच्छ। इतनी चेष्टा है कि इस अँधेरे से बाहर आकर हम उनके ज्ञान से प्रकाश की तरफ बढ़ें।   

Wednesday, July 8, 2020

कानों के शट्टर --दर्शन 'रत्न' रावण

जी हाँ ! कानों के भी होते है दरवाज़े। खुलते भी है और बन्द भी होते हैं। आँखों की पलकों से कुछ अलग। हमारे पूरे शरीर का कंट्रोल दिमाग के पास होता है। मगर कानों का कंट्रोल कभी-कभी हमारी नीयत के अधीन चला जाता है। यह स्थिति हमारे पूरे जीवन को तय कर देती है।

आप कक्षा में हो या सिनेमा में, आप घर में या मैदान में, आप दोस्तों के साथ हो या अपरिचितों में हर समय आप अधूरा सुनते हो या अपनी मर्जी का चुनते हो। जैसा भी हो होता यह घातक ही है। इससे हम अपना सम्पूर्ण व्यक्तित्व एक तरह से नष्ट कर लेते हैं।

IAS जैसे सर्वोत्तम एग्जाम के लिए जो प्रथम टिप्स दिए जाते हैं उनमें एक यह होता है कि अगर हम दाल-चना खा रहे हैं तो उसका कागज़ फेंकने से पहले उसे भी पढ़ लो। जितनी भाषा आपको आती हैं उन सभी में जो भी आस-पास लिखा दिखाई दे उसे पढ़ते चलो। हर जगह को निहारो। तब आप एग्जाम के लिए तैयार हो पाओगे।

ईश्वर ने कानों के शट्टर अगर नहीं लगाए तो जरूर उस सृजक की मंशा रही होगी कि हम हर आवाज़ को सुने। वो आवाज़ किसी बच्चे की है या बूढ़े की। विद्वान् की है या विद्यार्थी की। गरीब की है या अमीर की। यहाँ तक कि वो आवाज़ इंसान की है या जीव-जन्तु की। हर आवाज़ में एक पुकार भी है, ज्ञान भी और आशा भी।

परमेश्वर वाल्मीकि दयावान फरमाते हैं, "युक्तियुक्त बात तो बालक की भी मान लेनी चाहिए, लेकिन युक्ति से च्युत को तृण {तिनका} के समान त्याग देना चाहिए, चाहे वह ब्रह्मा ने क्यों न कही हो।" अब मेरी बात कुछ और आगे बढ़ गई। जैसा कि योगेश्वर वाल्मीकि त्रिकाल कह रहे हैं, युक्ति से च्युत अर्थात जिसमे कोई तथ्य और तर्क न हो उसे त्याग दो।

विश्वेश्वर वाल्मीकि करुणसागर समुन्द्र से भी गहरा ज्ञान हमें देते हैं कि सर्वप्रथम सुनो और सब कुछ सुनो। हम बिना सुने, बिना देखे कैसे फैसला कर सकते हैं किअच्छा क्या या बुरा क्या ? बुद्ध के तीन बन्दरों की तरह तो नहीं चल सकता समाज। जी हाँ वो तीन बन्दर गाँधी के नहीं बुद्धा के थे।

प्रसिद्द चित्रकार पिकासो से एक उद्योगपति अपना चित्र बनवाने आ गया। पिकासो ने बहुत मना किया मगर नहीं माना क्योंकि पैसों का घमंड था नहीं माना। आखिर पिकासो बहुत सारे पैसों और लम्बे समय के वादे के साथ मान गया।

जब उस पूँजीपति ने अपना चित्र देखा तो चिल्ला पड़ा, "किसने तुम्हें चित्रकार बना दिया ? यह चित्र या तो मेरा नहीं या अभी अधूरा है।" पिकासो ने उत्तर दिया, "नहीं जनाब यह चित्र एकदम मुक़म्मल है और आपकी शख्सियत के मद्देनज़र ही बनाया है।"

वह उद्योगपति और भड़क गया। बोलै, "तुम मेरे साथ मज़ाख कर रहे हो ? यह मेरी शख्सियत के एकदम खिलाफ है, उल्ट है। देखो इस चित्र को इसमें मेरा एक कान ही बनाया, आँख भी एक बनाई। यह हूँ मैं ? ऐसी है मेरी शख्सियत ? मुँह माँगा पैसा दिया, लम्बा समय दिया। ये क्या बना दिया ?"

पिकासो ने कहा, "शांत हो कर मेरी बात सुन लीजिए। चित्र चरित्र से बनता है। आप पूंजीपति हो। पूंजीपति को केवल अपना मुनाफा दिखाई देता है गरीब का खून और पसीना नहीं। उद्योगपति को अपने फायदे की बात सुनती है गरीब मज़दूर की चीख कभी सुनाई नहीं देती। इसलिए यह चित्र तुम्हारी शख्सियत के एकदम मेल खाता है।

आज भारत की सड़कें, मैदान, हॉस्पिटल, गली, गाँव कूचे सब जगह से चीख पुकार है। मगर पूंजीपतियों के गुलाम जो सरकार बना कर बिठा दिए गए उन्हें सब कुछ सामान्य लग रहा है। सब कुछ लाठी से कन्ट्रोल में है। देश को हुक्म दिया जाता है बुद्ध के तीन बन्दर बन जाओ। सारा मीडिया तो बन्दर बन ही चूका है।

ट्रेन को ऐसे लेट किया जा रहा है जैसे मज़दूरों को अघोषित सज़ा दी जा रही हो। प्लेट फार्म पर मरी माँ के बच्चे की पीड़ा नौटंकीबाज़ के कानों तक नहीं पहुँच सकती। भगोड़ों क़र्ज़ सरकारी कहते से दिया जा सकता है मगर मज़दूरों को खाना नहीं दिया जायेगा। है इनके आँख-कान ?

परमेश्वर वाल्मीकि दयावान क्रौंच की पीड़ा को भी महसूस करते हैं। यह ईश्वर की सत्ता को मानने वाले नहीं पैसे के पूत हैं।

विश्वकर्मा निर्माणकर्ता शिल्पकार क्यों मज़बूर मज़दूर --दर्शन 'रत्न' रावण

निर्माणकर्ता कहें, मज़दूर कहें शिल्पकार, श्रमजीवी या विश्वकर्मा ! परमेश्वर वाल्मीकि दयावान ने अपनी कलम से मेहनतकश को लिखा था कर्मा और विश्वकर्मा। कर्म शब्द जो आया पुरुषार्थ से। जिसे सिख गुरुओं द्वारा किरत कहा गया। पूंजीवाद के विकास ने हर निर्माणकर्ता को मज़दूर बनने के लिए मज़बूर कर दिया।

भारत में मज़दूर को जातियों में बंद कर दिया गया, आगे इस पर चर्चा होगी।मज़दूर शब्द जो आज सीधा प्रभाव यह देता है कि कोई मज़बूर अदना-सा या प्रवासी। अगर अर्थ शास्त्र के मुताबिक देखा जाए फिर मज़दूर की परिभाषा होती है, मज़दूर कहें शिल्पकार या श्रम की सेवा के लिए दिया गया मूल्य (कीमत) मजदूरी है। (मार्शल)"

ऐसे भी कह सकते हैं जिस श्रम {काम} की हम कीमत वसूल करें वह मज़दूरी।अर्थशास्त्र में, "श्रम" शब्द का व्यापक अर्थ है। इसका मतलब केवल मैनुअल {शारीरिक} श्रम नहीं है। इसमें मानसिक कार्य भी शामिल है। इस प्रकार यह मजदूरों, इंजीनियरों, क्लर्कों, टाइपिस्टों, प्रबंधकों, पुलिसकर्मियों और अन्य सरकारी अधिकारियों, शिक्षकों, वकीलों, घरेलू नौकरों आदि के काम को स्वीकार करता है।

यदि कोई पुरुष स्वास्थ्य के लिए व्यायाम करता है, यदि कोई माँ अपने बच्चे का पालन-पोषण करती है, तो एक पिता अपने बेटे को पढ़ाता है, या यदि कोई पुरुष अपनी खुशी के लिए फूल लगाता है - तो उसे अर्थशास्त्र में "श्रम" नहीं माना जाता है। आश्रम भी इसी बुनियाद पर थे। आ+श्रम यही स्वेच्छा से। इसे सिख इज़्म में कहा गया कार-सेवा।

भारत में मनु ने सबसे घिनौना और अमानवीय कुकृत्य किया कि हाथ से काम करने वाले हर स्वाभिमानी शख्स को शूद्र घोषित कर दिया था। अर्थात दास यानि गुलाम। भारत के बाहर भी सामंतवाद ने गुलामी की प्रथा बनाई। मगर उसका रूप भारत के दासों से भिन्न था। उन पर जातिवाद थोपा नहीं गया था।

एक गुलाम अल्तमश का नाम जब इतिहास में आता है तब हम देखते हैं कि गुलाम जरूर उसे कहा गया मगर ऐसा नहीं कि कोई उसकी परछाई से नफरत करे। सत्ता और शक्ति का युद्ध तो मानव हमेशा से लड़ता रहा है और वो अल्तमश को भी लड़ना पड़ा। गुलामी का सिलसिला बहुत देर तक संसार ने झेला।

अब हम विचार यह करेंगे कि आखिर एक कारीगर, शिल्पकार, विश्वकर्मा, किरति, जिसमें शामिल था लोहे को पिघला कर हल और तलवार बनाने वाला, धरती का सीना चीर फसल पैदा करने वाला, कपास का धागा बना लोगों का तन ढकने वाला और सिंगार के जेवर बनाने वाला भी कैसे सब मज़दूर और भारत में शूद्र बन गए ?

यह सब विकास से उपजा विकार था जिसने मानवता का विनाश ही कर दिया। इसको ऐसे समझें। एक आदमी लोहा पिघलाने के भट्ठी में कोयला दाल रहा है, दूसरा नीचे से हवा कर रहा है, तीसरा लोहे की छड़ को निकाल हथोड़े से आकार दे रहा है। अब यहाँ कम-से-कम तीन काम करेंगे। यह तीनों एक परिवार है।

जैसे ही किसी ने अपने पैसे के बल पर इनके आगे यह प्रस्ताव रखा कि तुम तलवार या हल बनाते हो मगर तुम्हें ग्राहक का इंतज़ार करना पड़ता है। तुम मेरे पास आओ यही अपना मन-पसंद काम करो और रोज़ अपना मेहनताना ले लो। ऐसे कई कारीगरों की मेहनत और हुनर के बल पर पूंजीपति बन जाता है उद्योगपति।

अब आप इसे हर तरह की दस्तकारी के साथ जोड़ कर समझ सकते है। यही क्रिया लोहार के साथ हुई और यहॉ लकड़ी का सामान बनाने वाले बढ़ई और मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कुम्हार से लेकर हर किसी के साथ हुआ। इस प्रकार मांग और उत्पादन के बीच के उतार-चढ़ाव को न समझने वाला कारीगर ही मज़दूर बन गया।

किसान के साथ भी ऐसा ही दुखांत हुआ। मौसम पर निर्भर होने और किसी मुश्किल समय में सूदखोर से कुछ पैसे ले लेता था। उसकी यह उधारी ज़मीन देकर भी पूरी नहीं होती थी। किसान को अपने ही खेत में मज़दूर बन कर काम करना पढता था। इस तरह किसान मज़दूर और सूदखोर ज़मीदार बन जाता था।

इसके बाद मशीन का युग आ गया। एक डोरी को खींच कर भट्ठी को हवा दी जा सकती थी। एक पहिया घुमा कर तलवार की धार बनाई जाने लगी। इस तरह कई एक लोगों की भूमिका कहें या कमाई समाप्त होने लगी और जब बिजली से मशीनें चलने लगी तब तो एकदम जैसे भूचाल ही आ गया।

इसके बाद 1750 में योरुप में औद्योगिक क्रांति कहें या आम आदमी के लिए गुलामी आ गई। मशीनों के कारण होने वाले जान-माल के नुक्सान का भी ख्याल नहीं रखा जाता था। एक और तरह के गुलाम बनने लगे उद्योगों के लिए कोयला निकलने वाले बंधुआ मज़दूर।

इनका जन्म-मरण सब कोयला खदान और जहाजों के तयखाने में ही हो जाता था।12 से 18 घंटे काम लिया जाता था। इसका अनुमान अगर लगाएं या उस स्थिति का अनुभव करके देखें तो बेहद खौफनाक मंजर उभर कर आता है। लोग परिवारों खासकर बच्चों से कटने लगे। यह एक तरह का जैसे समाज से बेदख़ल कर दिया हो। यह पीड़ा और नाइंसाफी आक्रोश पैदा करने लगी।

धीरे-धीरे मज़दूरों का गुस्सा आक्रोश में बदलने लगा। सर्वप्रथम 1789 में स्पार्टक्स नामक गुलाम के नेतृत्व में इतना सशक्त आंदोलन उठा कि रोमन साम्राज्य की जड़े उखाड़ दी गई और इसी आंदोलन ने फ़्रांस की राजशाही को समाप्त किया। परिणाम यह आया कि फ़्रांस में प्रजातंत्र कायम हो गया।

अमरीका के फिलाडेल्फिया में सन् 1806 में चमड़ा फैक्ट्रियों के मज़दूरों ने ऐतिहासिक हड़ताल की। मगर इसे बुरी तरह कुचल दिया गया। इसके बाद ‘मैकेनिक्स यूनियन ऑफ फिलाडेल्फिया’ नमक मज़दूर यूनियन की स्थापना हुई। अनुमान है कि यह श्रमिकों का प्रथम संगठन था।

1827 में ‘मैकेनिक्स यूनियन ऑफ फिलाडेल्फिया" ने आंदोलन की शुरुआत की। जिसकी मांग थी कि काम की अवधि 10 घंटे की जाए। जब आन्दोलन तेज़ होने लगा और अपना दबाव बनाने लगा तब मज़बूर हो कर वॉन ब्यूरेन की संघीय सरकार को इस मांग पर अपनी मुहर लगाने को विवश होना ही पड़ा।

उस वक्त की हकीकत आज से बहुत अलग थी। मजदूरों के श्रम पर सामंतों और राजाओं का अधिकार था। राजा और सामंत मजदूरों को अपनी संपत्ति समझते थे। श्रमिक, किसान और हस्तशिल्पियों का अपना कोई व्यक्तिगत अस्तित्व नहीं था। वे मालिक के दास हुआ करते थे। उस जमाने में मजदूरों की खरीद-बिक्री होती थी।

वर्ष 1868 में इस मांग के ही ठीक अनुरूप एक कानून अमेरिकी कांग्रेस ने पास कर दिया। अपनी मांगों को लेकर कई श्रम संगठनों ‘नाइट्स ऑफ लेबर’, ‘अमेरिकन फेडरेशन ऑफ लेबर’ आदि ने जमकर हड़तालों का सिलसिला जारी रखा।

ऐसे खौफनाक हालातों में संघर्ष करना बहुत मुश्किल था। मगर स्पार्टकस नाम के गुलाम के विद्रोह ने जहाँ फ़्रांस में दासत्व को समाप्त किया वहीँ ये क्रान्ति की हवा आज़ादी की उम्मीद बन कर सारे योरुप से अमेरिका तक फैलने लगी। यही से मई दिवस की बुनियाद पड़ने वाली थी।

अमेरिका में भी श्रमिकों ने अगस्त,1866 में राष्ट्रीय श्रम संगठन यानि ‘नेशनल लेबर यूनियन’ को स्थापित किया। इसी यूनियन के बैनर तले ‘काम के घण्टे आठ करो’ आन्दोलन शुरू कर दिया। मगर जैसा हम उस वक्त की राजनीतिक दशा को समझते हैं यह आसान नहीं था।

मई दिवस की शुरआत होती है 1886 तीन दिवसीय हड़ताल से है। दरअसल, शिकागों के इलिनोइस (संयुक्त राज्य अमेरिका) में इसका आयोजन किया गया था। इसमें 80,000 से अधिक आम मजदूरों, कारीगरों, व्यापारियों और अप्रवासी लोगों ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया।

हकीकतन 1 मई 1886 को ही मजदूर आंदोलन ने इतिहास की पुरानी मान्यता को मिटाया था। हड़ताल के तीसरे दिन मेकॉर्मिक हार्वेस्टिंग मशीन कंपनी के अन्दर घुड़ कर पुलिस ने मज़दूरों पर गोलियां चलनी शुरू कर दी। जिसमें 6 आंदोलनकारी मारे गए और सैंकड़ों घायल हो गए। विद्रोह और भड़क उठा।

4 मई को हेमार्केट स्क्वायर में मज़दूरों भारी संख्या में इकट्ठे हो गए। पुलिस भी भारी मात्रा में पहुँच गई। कहा जाता है एक विस्फोट हुआ। जिसके बाद मज़दूरों और पुलिस में एक तरह का खुनी संघर्ष शुरू हो गया। जिसमें सात पुलिस कर्मी और चार मज़दूर मारे गए। सैंकड़ों लोगों पर मुकदमें दर्ज़ किये गए।

न्यायाधीश श्री गैरी ने 11 नवम्बर, 1887 को जब अपना फैसला सुनाया तब उनकी आवाज़ कंपकपा रही थी और ज़ुबान लड़खड़ा। ग़मगीन-सी आवाज में चार मजदूर नेताओं स्पाइडर, फिशर, एंजेल तथा पारसन्स को मौत और अन्य कई लोगों को लंबी अवधि की कारावास की सजा सुनाई।

सज़ा जरूर हुई मगर मज़दूरों का होंसला तोड़ न सकी। इस ऐतिहासिक घटना को यादगार बनाने के उद्देश्य से वर्ष 1888 में अमेरिकन फेडरेशन ऑफ लेबर ने इसे मजदूरों के बलिदान को स्मरण करने और अपनी एकता को प्रदर्शित करते हुए अपनी आवाज बुलन्द करने के लिए प्रत्येक वर्ष 1 मई को ‘मजदूर दिवस’ के रूप में मनाने का निर्णय लिया।

जिस तरह से मज़दूर आन्दोलन विश्व में फैलने लगा वहीँ पर तमाम मज़दूर संगठनों ने अपनी एकजुटता और ताकत बढ़ाने के लिए 14 जुलाई, 1888 को फ्रांस की राजधानी पेरिस में अंतराष्ट्रीय समाजवादी संगठन की स्थापना की। यहीं पर सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित किया गया कि कार्य अवधि अधिकतम आठ घण्टे ही होगी।

इंग्लैंड में पहली बार 1890 में 1 मई को मज़दूर दिवस के रूप में मनाया। संघर्ष चलता रहा। आखिर 1917 का वो समय आया रशियन क्रांतिकारी ब्लादिमीर लेनिन के नेतृत्व में रूस में बोल्शेविक क्रांति हुई और वहां से भी जारशाही यानी राजशाही का अंत हो गया। जिसे मज़दूरों के लिए स्वर्णिम दौर कहा जाता है।

वर्ष 1919 में अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन {ILO} वज़ूद में आया। अपने अधिवेशन में प्रस्ताव रखा कि सभी औद्योगिक संगठनों में कार्यावधि अधिक-से-अधिक आठ घंटे निर्धारित हो। वर्ष 1935 में अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन {ILO} ने आठ घंटे की अवधि को घटाकर सात घंटे की अवधि का प्रस्ताव पारित करते किया।

अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन {ILO} ने अपने प्रस्ताव यह भी कहा कि एक सप्ताह में किसी भी मजदूर से 40 घंटे से अधिक काम नहीं लिया जाना चाहिए। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन {ILO} के इस प्रस्ताव को आज भी बहुत सारे विकसित और विकासशील देश मानते हैं। इससे कारकुशलता बढ़ती है।

भारत में मई दिवस पहली बार 1923 में मनाया गया और चीन में 1924 में मनाया गया। भारत का मई दिवस वैसे ही रहा जैसा सफाई दिवस पर सफाई कामगार ही उपेक्षित रहता है। भारत की भूगोलीय राजनीति कार्ल मार्क्स के नारे,‘‘दुनिया के श्रमिकों एक हो जाओ" के एकदम विपरीत थी।

कार्ल मार्क्स चाहते थे कि ऐसी सामाजिक व्यवस्था स्थापित हो, जिसमें लोगों को आर्थिक समानता का अधिकार हो और जिसमें उन्हें सामाजिक न्याय मिले। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को कार्ल मार्क्स समाज व श्रमिक दोनों के लिए अभिशाप मानते थे। यह भारत के बाहर संभव था, भारत में नहीं।

वंशदानी डॉ आंबेडकर भारतीय कम्युनिस्टों को बंच आफ द ब्राह्मण बायज कहते थे और अफसोस करते थे कि गरीब और मजदूरों की मुक्ति का एक क्रांतिकारी आंदोलन भारत में गलत हाथों में आकर बेकार हो गया। बाबा साहिब डॉ अम्बेडकर का मानना था की कार्ल मार्क्स का सोचना कहीं भी गलत नहीं था।

डॉ. आंबेडकर चाहते थे “मजदूर वर्गों के हर व्यक्ति को रूसों का ‘सामाजिक अनुबंध’, मार्क्स का ‘कम्युनिस्ट घोषणापत्र’ पोप लियो तेरहवें का ‘मजदूरों की स्थिति पर जारी परिपत्र’ एवं जान स्टुअर्ट मिल के स्वतंत्रता पर विचारों की जानकारी रखनी जरूरी है, क्योंकि ये चारों आधुनिक समय के समाज और सरकारी संगठन के कार्यक्रम सम्बंधी मूल दस्तावेज हैं।” {सोहन लाल शास्त्री}

विश्व ज्ञान प्रतीक डॉ अम्बेडकर कहते हैं कि अगर भारत में कम्युनिस्ट सत्ता स्थापित करते हैं तो जिन तीन बड़ी ताकतों की जरूत होगी, एक सेना, दूसरा प्रशासनिक मशीनरी, तीसरा मज़दूर वर्ग। जैसा कि भारत में सेना तथा प्रशासनिक सेवाओं पर ब्राह्मणों, बनिया और सामंतों का एकाधिकार है। उस वक्त कागज़ों में कार्ल मार्क्स व मन में मनु होगा।

डॉ भीम राव अम्बेडकर ने अपने कथन की पुष्टि में तेलंगाना का उदाहरण दिया था, जहां अछूत खेत मजदूरों ने बड़े जमींदारों की भूमि छीनने में साम्यवादियों {कम्युनिस्ट} के साथ मिलकर संघर्ष किया था। उनमें सैकड़ों अछूत मजदूर मारे भी गए थे। लेकिन जब भूमि के बंटवारे का समय आया तो ऊंची जाति के कम्युनिस्टों ने अछूत मजदूरों से कहा कि –

“तुम्हारी मजदूरी हम दुगनी कर देंगे, पर तुम्हें भूमि का मालिक नहीं बनाया जा सकता।” वहां छीनी गई भूमि कम्मे और रेड्डी जमींदारों को दे दी गई। डॉ.आंबेडकर ने पूछा, क्या यही उदाहरण सारे भारत में कम्युनिस्ट राज स्थापित होने पर चरितार्थ नहीं होगा?

कम्युनिस्ट पार्टी का साधारण कार्डधारी सदस्य बनने के लिए गरीब मज़दूर को वर्षों अपनी ईमानदारी सिद्ध करने में लग जाते थे। शायद इसलिए कि जैसा मनु ने समझाया था कि अछूतों को सत्ता, शक्ति धन से दूर रखो .मगर एक ब्राह्मण परिवार में जन्मे और वानर सेना तथा संघ में सक्रीय दत्तोपंत ठेंगड़ी को दूसरा ब्राह्मण पी. वाय. देशपाण्डे खुद आमंत्रित करता है।

विश्व ज्ञान प्रतीक डॉ आंबेडकर की शंकाओं को सत्यापित करते हुए मात्र छे वर्षों (1949 से 1955) में कम्युनिस्ट पार्टी के श्रमिक घटकों का शीर्ष पदों पर पहुँच गया। अधिकाँश लोगों को तो इतने वर्षों में कैडर सुनने का अधिकार भी नहीं दिया जाता था।

मगर दत्तोपंत ठेंगड़ी को ब्राह्मण होने का अतिरिक्त लाभ दिया गया।परिणाम यह आया कि सारा संगठनात्मिक ढाँचा देखने और विश्वास बनाने के बाद दत्तोपंत ठेंगड़ी आखिर 23 जुलाई 1955 को, भोपाल में, भारतीय मजदूर संघ की और एक अखिल भारतीय केन्द्रीय कामगार संगठन के रूप में स्थापना की गई।

राष्ट्रवादी कट्टरतवादी दत्तोपंत ठेंगड़ी ने नारा दिया, "देश के हित में करेंगे काम, काम के लेंगे पूरे दाम"यही दुखांत है भारत का कि कभी सम्पूर्ण भारत बन कर या एक इंसान बन कर सोचा ही नहीं गया। आप आर्यों के बाद के सारे इतिहास पर नज़र दौड़ा कर देख लीजिए। भारत की हार कारण भारत में जातिवादी लोग ही रहे। चाहे मंगोल आए, मुग़ल या अंग्रेज़ आदि हर समय भारत बिखरा हुआ मिला। कारण मनु का लगाया जातिवाद का बीज।

जैसा डॉ अम्बेडकर उस वक्त सर्वहारा आंदोलन पर अफसोस करते थे कि गरीब और मजदूरों की मुक्ति का एक क्रांतिकारी आंदोलन भारत में गलत हाथों में आकर बेकार हो गया। ठीक ऐसा ही 2011 में जब सारा विश्व परिवर्तन की करवट ले रहा था तब अन्ना हज़ारे ने उस आन्दोलन को कट्टरपंथि संघियों की झोली में जाने दिया।

कट्टरपंथी हिन्दू सोच कभी मज़दूर का भला नहीं कर सकती। कट्टर हिन्दुत्व का अर्थ हुआ कि वह सनातनी सोच जिसे मनु ने स्थापित किया को ही मान कर चलेगा। गौतम धर्म सूत्र कहता है, "यदि शूद्र जप ,तप, होम करे तो राजा द्वारा दंडनिय है। (12/4/9) "मनुस्मृति" के अनुसार, "शूद्र का कमाया धन ब्राह्मण को बलात् छीन लेना चाहिए।"

भेदभाव अमेरिका में भी था। मगर वहां भारत की तरह उनके धर्म ग्रंथों ने नहीं सिखाया था। वहां जातिवाद नहीं। जैसे अछूत, शूद्र भील आदि। अमेरिका में नस्लवाद है यानि रंग भेद है काले और गोर का। अमेरिका के नस्लवाद को लेकर लड़ाई आज भी जारी है मगर भारत से एकदम भिन्न।

यहाँ देखिए ऐसी मिसाल कि पशोपेश में डाल देगी। अपने पिता के साथ डॉ॰ मार्टिन लूथर किंग, जूनियर एक जूते की दुकान में जा कर पिता पुत्र दोनों पहली पंक्ति के बैंच पर बैठ गए। कुछ देर बाद एक श्वेतांग युवक आया और उसने धीरे से कहा, "मुझे आपकी सेवा करके बड़ी खुशी होगी, अगर आप यहां से उठकर पीछे की बेंचों पर चले जाएं।"

अब ऐसी ही कल्पना भारत में कीजिए। जैसे तालाब या कुएँ से पानी लेना या शादी के समय घोड़ी पर बैठना या याद कीजिए वीर बालक एकलव्य को। अमेरिका का सेल्ज़ मैं कितनी शालीनता से कहता है। एक तरह से वो प्रार्थना ही कर रहा था और भारत का द्रोणाचार्य जो शिक्षक है, संत है वो कहता है,"यहाँ से निकल जा नीच, तू अछूत है बाहर निकल।"

27 मई 2020 को एक काले शख्स जॉर्ज फ्लोयड George Floyd की गर्दन को अपने घुटने से दबा कर सांस रोक दी। जिससे जॉर्ज फ्लोयड की मृत्यु हो गई। इस घटना से अमेरिका में उबाल आ गया। सामाजिक बदलाव यह भी देखने को मिला कि सड़कों पर प्रदर्शन करने वालों में गोर ज्यादा थे। राष्ट्रपति ट्रम्प की बेटी भी।

1 दिसंबर, 1955 को, एक ऐसी ही घटना हुई जब रोजा पार्क्स को सिटी बस में अपनी सीट छोड़ने से इनकार करने के लिए गिरफ्तार किया गया था। इस डॉ॰ मार्टिन लूथर किंग, जूनियर ने आन्दोलन शुरू कर दिया जो पूरे 381 दिनों तक चले इस सत्याग्रही आंदोलन के बाद अमेरिकी बसों में काले-गोरे यात्रियों के लिए अलग-अलग सीटें रखने का प्रावधान खत्म कर दिया गया।

अपने जीवन के अंतिम दिनों में डॉ॰ मार्टिन लूथर किंग, जूनियर ने सफाई कर्मचारियों के लिए संघर्ष प्रारम्भ किया। नतीजा यह कि वो आन्दोलन सारे अमेरिका में फ़ैल गया। इसी आंदोलन को लड़ते हुए अमेरिका के अम्बेडकर डॉ॰ मार्टिन लूथर किंग, जूनियर की 4 अप्रैल 1968 को गोली मार कर हत्या कर दी गई।

मगर सारे कथित भगवानों की जन्म स्थली भारत में स्थिति इसके विपरीत है। यहाँ हर जाती अपना आन्दोलन खुद लड़ती है। नियम तो यह भी रहा कि चाहे कुछ भी हो जाए लड़ने काम ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र व अछूत कभी नहीं करेंगे। इसी कारण सोमनाथ मंदिर लुटता रहा।

जब लोग लोकतंत्र की बात करते हैं तो अरस्तु या जॉन स्टुअर्ट मिल की मिसाल प्रस्तुत करते हैं। लोकतंत्र की सबसे प्रसिद्ध और सुपरिचित परिभाषा दी जाती है “लोगों का लोगों द्वारा और लोगों के लिए ” शासन। यह बात अब्राहम लिंकन जैसे महान व्यक्ति ने कही। जिसने सबसे पहले अपने गुलामों को आज़ादी दी।

भारत की बात करें तो भारत को धर्म परिवर्तन या धर्म का ट्रेड फेयर स्थल भी कहा जा सकता है। यानि आप ईसाई, मुस्लिम, सिख, बौद्ध या राधा-स्वामी, निरंकारी सच्चा-सौदा आदि कुछ भी बन सकते हो मगर ! मगर केवल प्रवचन के मैदान तक। फिर आपकी बस्ती, आपकी जाति वो बनी रहेगी।

अब्राहम लिंकन हो, सुकरात या कार्ल मार्क्स भारत में सब फेल। लोकतंत्र किसी परिभाषा से बंधा नहीं हो सकता। लोकतंत्र किसी जगह के लोगों के स्वभाव पर निर्भर है। अगर कानून के डंडे से लोकतंत्र चलाएंगे तो वो तानाशाही जैसा कुछ बन जायेगा। लोकतंत्र के लिए अब्राहम लिंकन जैसा दिल भी चाहिए।

1996 में हरियाणा के सर्वकर्मचारी संघ ने हड़ताल की घोषणा कर दी। यह एकदम नासमझी वाला कदम था। हड़ताल सभी विभागों के सभी कर्मचारियों के लिए थी मगर सारा ज़ोर सफाई कर्मचारियों से लगवा दिया गया। हज़ारों सफाई कर्मचारी जेलों में चले गए।

रोहतक में बड़ी रैली रखी गई कॉमरेड हरकिशन सुरजीत आये सम्बोधन करने। रैली कर्मचारियों के नाम पर बाकि सब मंच पर मौजूद थे एक सफाई कर्मचारी प्रतिनिधि को छोड़ कर। यह उस कौम के साथ हुआ जिसकी सैंकड़ों औरतें जेल में थी और कई ने बच्चों को जन्म जेल में दिया। मांग क्या थी ? मेहनताना !

हज़रत अली {हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम} का मशहूर जुमला है, 'मज़दूरों का पसीना सूखने से पहले उनकी मज़दूरी दे दो।" (कुरआन : 34-11) सृष्टिकर्ता वाल्मीकि दयावान कहते हैं, "तीन लोकों में ऐसा कोई पदार्थ नहीं है जो उद्वेग रहित पुरुषार्थ द्वारा प्राप्त न किया जा सके।" अर्थात मेहनताना जरुरी है। गीता श्रम सिद्धांत के विपरीत बंधुआ मज़दूर की बात करती है।

मज़दूर आंदोलन का अर्थ मज़दूर का स्वार्थ नहीं होता। मज़दूर आंदोलन का अर्थ समानता, बराबरी, इन्साफ, लोकतंत्र व गणतंत्र के रूप में भी देखा जाना चाहिए। मगर भारत में कम्युनिस्ट पी. वाय. देशपाण्डे कॉमरेड से ज्यादा ब्राह्मण निकले और ब्राह्मण दत्तोपंत ठेंगड़ी ने सारे मज़दूर वर्ग को ठग लिया।

आज कोरोना काल में राजा राम का झंडा लकर सत्ता में आई संघ परिवार की सरकार एक बार फिर से मज़दूरों को उसी अमानवीय युग में ले जाने के लिए पूरी तरह कमर कस चुकी है। जैसे 12 घंटे काम करने और मज़दूर यूनियन व हड़ताल पर प्रतिबन्ध लगाना। इसी राष्ट्रवाद के लिए दत्तोपंत ठेंगड़ी ने साज़िश रची थी।

दुनियाँ के विकास के साथ-साथ इंसान का का एक जगह से दूसरी जगह पलायन भी हुआ। माईग्रेशन इस लिए भी हुई की गांवों या छोटे शहरों में रोज़गार के साधन कम होने की हालत में लोगों को एक जगह से दूसरी जगह जाना पड़ा। इससे उन्हें बहुत नुक्सान भी उठाना पड़ा।

भारत के अलग-अलग राज्यों में जैसे-जैसे नगरों का गठन कर स्थानीय निकाय बनाए गए। उसी वक्त से वाल्मीकि कौम {सफाई कामगार समाज} का पलायन शरू हुआ। यह राज्य सरकारों की तरफ से सफाई कार्य के लिए आमंत्रित {जब्बरी लाद कर भी} किया गया था। काम {नौकरी} दिया रहने को मकान दिए गए मगर इंसानी हक़ छीन लिए गए।

जम्मू-कश्मीर में धारा 370 को बहाना बनाया गया। मगर अभी तक यह नहीं बताया गया कि देश की हिस्सों में वाल्मीकि कौम {जिन्हें दूसरे राज्यों से आमन्त्रित किया गया था} उनके उन्हीं राज्यों में जन्में बच्चों को क्यों शिक्षा व नौकरी में संवैधानिक अधिकारों से महरूम रखा गया।

Domicile_Certificate मूल निवासी प्रमाण पत्र वाल्मीकि कौम {सफाई कामगार समाज} को उनके बच्चों के भविष्य हित क्यों जारी नहीं किया गया ? यह संगीन अन्याय कभी कम्युनिस्ट पी. वाय. देशपाण्डे कॉमरेड और संघी दत्तोपंत ठेंगड़ी के लिए मुद्दा बना ही नहीं।

बिना Domicile_Certificate कोई स्कूल कॉलेज प्रवेश देता ही नहीं।जाति है जो जाती नहीं। यह जुमला मार्क्सवादियों ने भी सिद्ध कर दिया। आखिर उसी जाति में जन्मे बाबा साहिब डॉ भीम राव अम्बेडकर को ही सफाई कर्मचारियों सहित सभी मज़दूरों के हित में उतरना पड़ा।

1938 में 7 नवम्बर को ट्रेड यूनियन कांग्रेस की हड़ताल में खुद डॉ अम्बेडकर उतरे।1941 में म्युन्सिपल कामगार यूनियन के अध्यक्षीय भाषण में सफाई कामगारों को सम्बोधन करते हुए वंशदानी डॉ आंबेडकर ने कहा,

"आप लोग अपने हाथों की विशाल ताकत को अनुभव नहीं कर पा रहे। मात्र आपके काम न करने से ही आप एक सप्ताह में ऐसी दुर्दशा और विनाश कर सकते हैं, जितना कि तीन माह के हिन्दू-मुस्लिम दंगे से भी नहीं होता।"

भले 1923 से भारत में मई मज़दूर दिवस मानना शुरू कर दिया था मगर 1942 में विश्व ज्ञान प्रतिक डॉ अम्बेडकर ने काम {श्रम} के 14 घंटे से 8 घंटे का कानून जारी किया। हमेशा डॉ अम्बेडकर मज़दूरों से जुड़ कर रहे। इसलिए 1939 में बनायीं पार्टी का नाम आज़ाद लेबर पार्टी रखा था।

हकीतन आपके दिल की पीड़ा आप पर प्रभावी है या दिमाग की कोई तिकड़म इस पर निर्भर करता है आपका काम और दिशा। जिनका हमेशा उदेश्य यह रहा हो कि येन-क्रेन-प्रकारेण सत्ता पर काबिज़ रहना है भले कितनों के सिर कट जाएँ या भविष्य मालिया मेट हो जाए।

"जिस तन लागे सो तन जाणे, दूजा कोई ना जाणे।" बुल्ले शाह का यह कथन एकदम सत्य की दिशा में है। आदिकवि वाल्मीकि सृजनहार भी यही कहते हैं, "सबसे विश्वसनीय मित्र - अपना हाथ" आज भी जो इस कोरोना काल में मज़दूरों के साथ हुआ संघीयों द्वारा, वैसा ही पश्चिम बंगाल में दलितों के साथ होता रहा।

पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट शासन के दौरान दलितों को मंत्रिमंडल में तरजीह देना उचित नहीं समझा। वैसे पार्टी मज़दूरों की है। शायद दलित उसके लिए मज़दूर की परिभाषा में ना आकर अछूत के दायरे में आते हो ? डी,राजा पहला वो शख्स है जिसे साम्यवादियों ने अपनी राष्ट्रीय कार्यकारिणी में लिया।

दलितों की समझ या कार्यकुशलता पर ब्राह्मण की तरह ही कम्युनिस्ट सोचते हैं। मगर इसके बावजूद पश्चिम बंगाल का विकास देखिए। कलकत्ता ही ले लीजिए बाकि महानगरों के मुकाबिले सबसे पिछड़ा हुआ दिखाई देगा। इसीलिए सत्ता हाथ से रेत की तरह निकल गई।

अब क्या रोल है कम्युनिस्टों का ? सत्ता तो आती जाती रहती है यही तो लोकतंत्र है मूल मन्त्र है। मगर इतने पगला गए कि ममता से बदला लेने के लिए अपनी पार्टी ही नहीं विचार-धारा छोड़ धर्म का झंडा उठा कर चल रही भाजपा के साथ हो लिए, वो जो सारी उम्र धर्म निरपेक्षता पर लम्बे भाषण देते रहे।दरअसल एक था मार्क्सवाद दूसरा था पुश्तैनी ब्राह्मणवाद।

हकीकत यह रही कि भारत का नेतृत्व भले किसी भी पार्टी का रहा हो वो या ब्राह्मणवाद, जातिवाद से मुक्त नहीं हो पाया या सत्ता हथियाने के लिए उसे लगा कि सिद्धांतों डालों गन्दे नाले में और सत्ता की कुर्सी पर बैठो चाहे वो कूड़े के ढेर पर हो या लाशों के।

गुरदास आलम जिनकी कलम की तपिश को आज भी महसूस किया जा सकता है। अपनी बेबाकी और हकीकत को कविता में कहने के अंदाज़ में गुरदास आलम का कोई सानी नज़र नहीं आता। आज़ादी के समय जब कौम बँट रही थी ज़मीनें बाँटी जा रही थी तब हमारे बारे क्या राय थी बड़े नेताओं की सुनिए गुरदास आलम जी की कलम से,

फड़के बन्दियाँ अते इलाकियाँ नूं , आपो अपनी तरफ नूं खिच रहे सी।आखिर गाँधी के खा जिनाह तांई, जिथों तक बणदी अपनी हद लै लो।हरिजनां नू छड के बंदयां दी, भावें सारे इस्लाम दी जद लै लो।
कायदे-आज़म ने कहा जनाब गाँधी, रकबा तुसीं भावें वद लै लो।
अछूत सांझे गुलाम है सारियां दे, जोड़-तोड़ करके अधो-अध लै लो।

गंभीरता और ईमानदारी से गौर फरमाएं तो आप पाएंगे कि दलित-आदिवासी {अछूत} को भेड़-बकरी की तरह देखा जा रहा था। जबकि सबसे हुनरमंद, मेहनतकशों की बात की जा रही थी। जिनके भी किसी राष्ट्र का निर्माण हो ही नहीं सकता।

यही कारण रहा कि जिसे परमेश्वर वाल्मीकि दयावान ने अपने महाकाव्य समायण में विश्वकर्मा अर्थात सबसे बड़ा मज़दूर भी सबसे उत्तम इंजीनियर भी, उसे हिन्दू जगत घृणा की दृष्टि से देखता है। जिसने रातो-रात लंका को दरुस्त कर दिया वो महारानी माँ मंदोदरी के पिता मई दानव थे।

मंदिरों, भगवानों, नदी-मईया और गौ-माता की बात करने वालों का ईमान तो पूरी तरह पूंजीपतियों के चरण-श्री में रखा हुआ है। जिस वक्त देश का गरीब मज़दूर कारीगर भूख-प्यास और साधनों के लिए तरस रहा था भारत की सरकार ने 68,000 करोड़ रुपए बैंकों से फ्रॉड करके भगोड़ों के खाते में डाल दिए।

किसी आन्दोलन या विचार की सफलता हमारे ईमान पर निर्भर करती है। भारत का अमीर आदमी ही नहीं सड़क पर पत्थर तोड़ता मज़दूर भी न जाने कब ठाकुर, तिवारी या हिन्दू मुस्लिम हो जाता है, इसी का लाभ उठाते रहे सदा गाँव के सूदखोर से पूंजीपति तक। जाति व धर्म के नाम पर मज़दूरों को लड़ा कर यूनियन तोड़ दी जाती। इस पतनशील मानसिकता से बाहर आये बिना हमें क़ामयाबी मयस्सर नहीं।

ऐसा ही किसान यूनियन को बनाने के बाद देखने को मिला। अचानक जब किसान की दशा या कुछ क़ानून-कायदे उसके हिट में आने लगे जैसे बैंक लोन और सब्सिडी जैसे उसी वक्त भारत का किसान जाट, ठाकुर, पाटिल और रेडी हो गया और खेत में काम करने वाला मज़दूर मज़हबी और मुसहर हो गया। यानि जात-पात बीच में आ गई।

जब दलितों के नाम पर अपनी ताकत का सपना परोसा गया डी.एस.4 के नाम पर जल्द ही बहुजन नाम का बड़ा पंडाल सजा लिया गया और उसमें बहुजनों का तो पता नहीं क्या हुआ। हाँ ! मगर सारे दलितों के नाम पर एक ही जाति का भला किया गया और यह हुआ कि दलित इतिहास व अस्मिता को दरकिनार कर क्षत्रिय बुद्ध ही एजेण्डे में रह गया।

धर्म या ईश्वर को मानने का अर्थ एक दूसरे से नफरत करना कैसे हो जाता है ? नफरत सीखने या पैदा करने वाले शब्दों को शास्त्रों के श्लोक या वाणी कैसे कहा जा सकता है ? इन सवालों पर सोचिए। इससे मानवता और खुद धर्म का भी भला हो जाएगा।

प्रेम और क्षमा, इल्म भी इलाज़ भी --दर्शन 'रत्न' रावण

प्रेम और क्षमा, इल्म भी इलाज़ भी --दर्शन 'रत्न' रावण

गलती ! यह भी बड़ा विचित्र शब्द है। अपनी हो तो, "हो जाता है" या गलती भी गलती से हो गई यार। दूसरे से हो जाए तो हज़ारों सवाल। उम्र, तालीम, रुतबा, परिवार और अक्ल सभी तरफ से तीर चलाये जाते हैं। कभी अपने आपको उसी स्थिति में रख कर भी सोचना जरुरी है।

आज हमारे एक साथी की मृत्यु उपरान्त योगविशिष्ठ पाठ की क्रिया थी। मगर कुदरत ने मौसम द्वारा और साथियों ने कोरोना का भय दिखा कर रोक लिया। मगर मेरा मन आज सारा दिन वहीँ था। एक जुझारू साथी का अचानक ऐसे रुष्ट हो कर चले जाना बहुत असहनीय है मेरे लिए।

गलती होती किस्से है ? गलती वही कर सकता है जो कुछ कर रहा है। जिसने बिस्तर पर ही पड़े रहना है उससे गलती की कोई सम्भावना ही नहीं बल्कि मैं ऐसे कहूं तो ज्यादा उचित होगा कि वो अपने आप में ही एक बड़ी गलती होता हैं और गलती कैसे गलत करेगा ?

हम सभी चाहे अनचाहे गलतियें करते हुए ही आगे बढ़ते हैं। इसीलिए इंसान को गलतियों का पुतला भी कहा जाता है। आदि-नित्यनेम में हम प्रार्थना करते हुए कहते हैं, "ढ-कहे ढोंग मनुष्य ने, रचे हैं बेशुमार। सत-पथ को न त्याग दूँ, बुद्धि दो दातार।। सत्य से भटके कि गलती हुई।

एक जगह गुरुनानक देव जी फरमाते हैं, "आपि करे सचु अखल अपारु, हऊ पापी तूँ बखसनहारु" {अंग 358} ऐसे ही परमेश्वर जिन्हें वाहेगुरु कह कर सम्बोधन किया गया वो सृजनहार वाल्मीकि मेहरबान कहते हैं, "ऐसा सोच कर दुखी न हो कि भाग्य का लिखा मिटाया नहीं जा सकता।"

जिसे आदमी बदलना चाहे, वो कौन-सा भाग्य है ? वही भाग्य होता है जो हमें दुःख दे, उसी से हम मुक्ति चाहते हैं। गुरुनानक देव जी के कथन में एकदम यही बात साफ़ समझ में आता है जब वो कहते हैं, "हऊ {हम} पापी तूँ बखसनहारु" यानि हम पाप कर सकते हैं और तुम हमें बख्श देते हो।

मेरा मन कहता है कि 'बखसनहारु' का अर्थ केवल माफ़ कर देने वाला नहीं बल्कि उससे कहीं आगे जो माफ़ भी करे और हाथ पकड़ कर राह भी दिखाए। जैसे योगेश्वर वाल्मीकि दयावान कहते हैं, "ऐसा सोच कर दुखी न हो कि भाग्य का लिखा मिटाया नहीं जा सकता।"

जब परमेश्वर नए सिरे से जीवन को आरम्भ करने की आज़ादी हमें प्रदान करते हैं तब हम क्यों खुद को परमेश्वर से भी बड़ा मान लेते हैं और एक गलती की सजा जान गवा कर चुकाने के लिए दूसरे को मजबूर कर देते हैं। या हम खुद को खुदा मान बैठते हैं जो एकदम निष्पाप है या पत्थर हो जाते है।

जब आदिकवि वाल्मीकि त्रिकाल ने क्रौंच की निर्मम हत्या पर संसार का प्रथम श्लोक कहा, "मां निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः। यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्॥"(समायण, बालकाण्ड, द्वितीय सर्ग, श्लोक 15) तब भी करुणासागर जीवन की आज़ादी नहीं छीनते।

निषाद बन विष्णु ने तो क्रौंच को मार दिया था। मगर सृष्टिकर्ता वाल्मीकि दयावान न सीता को मृत्यु देकर राम को कष्ट का एहसासात करवाते हैं न ही राम को मौत की सजा सुना खुद को निषाद की जगह खड़े करते हैं। जगतेश्वर समानरूप से इन्साफ करते हैं की एहसास होना ही जरुरी है।

गुरु रविन्द्र नाथ टैगोर भी कहते हैं, "यदि आप सभी गलतियों के लिए दरवाज़े बंद कर देंगे तो सारा सच बाहर ही रह जायेगा।" गलतियों का बाहर आना भी जरुरी है। गलतियें जब बाहर आती हैं तब अन्दर सच के लिए जगह बनती है। मगर गलती वो जो गलती से हो जाए और जब दोहराएं तो पाप।

माफ़ी की उम्मीद करना कोई पाप या नाज़ायज नहीं। मगर उससे पहले गलती मान लेनी जरुरी। जब हम अपनी किसी गलती को तस्लीम {स्वीकार} करते हैं तब दूसरी तरफ हम तालीम {शिक्षा} प्राप्त कर रहे होते हैं। यानि हमारी गुस्ताखियें हमें बहुत कुछ सीख देती हैं। इन्हें ठोकर भी कह सकते हैं।

साबसे जरुरी बात जब लगे की गलती का एहसास है तब केयर की जरूरत बहुत जरुरी है। हम न खुदा हैं, न निष्पाप। हम कानून भी नहीं हैं न न्यायाधीश। है इंसान हैं। अरस्तु कहते हैं इंसान सामाजिक प्राणी है। फिर कैसे संभव है कि इंसान बाकि इंसानों से कट कर जी ले।

मैं जब कैंट एरिया {Military Area} देखा करता था तब बचपन की सोच हुआ करती थी कि इनके साथ आम नागरिक {Civilian} क्यों बसाये जाते हैं ? ये लोग सुरक्षा को खतरा न बने। मगर बड़े होने के बाद समझ में आया कि फौज के जवानों को अपनी बस्ती/गाँव सा वातावरण लगे इसके लिए जरुरी है इनका परिवारों के आस-पास रहना।

जैसे बच्चे की रूचि खिलोने में हो सकती है मगर वह माँ-बाप की गैर-हाज़री भी सहन नहीं कर सकता। वैसे ही हम सारी उम्र अकेलपन देखते ही घबरा उठाते हैं। शायद हम इसे समझे कि प्रेम और क्षमा हमारी सांस से भी जरुरी है। परिवार की बुनियाद इन्हीं पर टिकी रहती है।

जर्मन फिलोस्फर फ्रेडरिक नीत्शे का मानना है, "वो जिसके पास जीने का कारण है कुछ भी सहन कर लेता है।" क्या है जो इंसान को सब कुछ सहन करने की ताकत बख्श देता है ? वह है परिवार या प्रेम। दूसरा है क्षमा। यह भी एक तरह की सामजिक इल्म {शिक्षा} है। जीवन की सफलता किसी हद तक इन्हीं पर निर्भर करती है।


एक स्वपन जो मुझे सोने नहीं देता। --दर्शन 'रत्न' रावण

         एक स्वपन जो मुझे सोने नहीं देता। --दर्शन 'रत्न' रावण  सुबह जिसमें पक्षियों की चहक, आज़ान की आवाज़ और गुरुद्वार से आती परम्पर...