धर्म ! यह शब्द जैसे ही सुनने, पढ़ने में आता है हमें अलग-अलग लिबास दिखाई देने लगते हैं। कोई चोटी रखे हुए दिखाई देता है, कोई पूरा सिर मुंडवाए हुए, किसी में पगड़ी रखी हुई है तो कोई टोपी पहने नज़र आता है। कोई उज्जवल कपड़ों में लिपटा हुआ तो कोई राख मले नंगा है। इस पर सृष्टिकर्ता वाल्मीकि योगेश्वर कहते हैं........
"कई महत्वाकांक्षा में पढ़ कर घर बार छोड़कर सन्यासी हो जाते हैं, कर्म छोड़ देते हैं, वेश बदल लेते हैं, शरीर पर राख लगा कर, नग्न हो कर त्यागी, तपस्वी होने का दंभ करते हैं, किन्तु इसका त्याग, वैराग्य, चित्त-शुद्धि एवं आत्म-ज्ञान से कोई सम्बन्ध नहीं है।"
आपकी आँख बन्द है या खुली यह धर्म नहीं। आप दुआ के वक्त झुक जाते हो या उठ कर आकाश की तरफ देखने लगते हो यह रिवाज़ हो सकता है। या किसी की बनाई परम्परा हो सकती है धर्म तो बिलकुल नहीं है यह। हाँ ! धर्म से सम्बन्धित हो सकता है मगर धर्म नहीं। योगविशिष्ट में आदिकवि वाल्मीकि लिखते हैं........
"जिनको त्यागी, सन्यासी, आत्मज्ञानी होने का झूठा भ्रम हो गया है कि मैं शरीर नहीं हूँ, आत्मा हूँ, मैं त्यागी हूँ, तपस्वी हूँ, सन्यासी हूँ, मैं ईश्वर ही हूँ आदि, ऐसे व्यक्ति महा-अन्धकार में भटकते रहते हैं। अपने स्वभाव के अनुकूल व्यवहार करने से पाखंड नहीं होता तथा उसकी दुर्गति भी नहीं होती।"
वो जो अछूत, निर्लेप है कमल की भाँति वही फैसला करेगा कि धर्म है क्या ? कमलेश्वर वाल्मीकि विश्वेश्वर कहते हैं धर्म सीखने की एक प्रक्रिया है। जिसमें माँ होती है प्रथम गुरु। जैसे जैसे हम जैसा जैसा सीखते चले जाते हैं वैसा ही हमारा स्वभाव तैयार होने लगता है। हमारा स्वभाव ही हमारा धर्म है। अच्छा भी हो सकता है बुरा भी।
योगविशिष्ट की यही बातें कबीर, रविदास, नामदेव, नानक, पीपा, फरीद, बुल्लेशाह आदि सभी के स्वभाव में थी। इन पाक रूहों ने न कोई वेश बनाया, न ऐसा करने को कहा। कहा क्या ? कहा कि सच के लिए बीच चौराहे पर खड़े हो जाओ, फिर कोई साथ आए या न आए। संक्षिप्त-सा दर्शन करते हैं और योगविशिष्ट का।
"संसार से पार होने का एक मात्र उपाय ज्ञान है। तप, दान, तीर्थ आदि उपाय नहीं है।"
"निर्वाण नाम वाला परम आनन्द 'ज्ञान' से ही प्राप्त होता है।"
"हमारी इच्छा ही वस्तु से सुख का आभास उत्पन्न कराती है।"
"सब इच्छाओं से अलग होकर जो चित्त का क्षीण हो जाना है, उसे मोक्ष कहते हैं।"
"आत्मज्ञान के बिना शांति नहीं हो सकती।"
"चित्त की शान्ति और समता तो योग से प्राप्त होती है, न की कामेन्द्रियों को स्थगित कर देने से।"
"सब दुखों का क्षय {समाप्त} करने के लिए पुरुषार्थ के अतिरिक्त दूसरा कोई मार्ग नहीं है।"
"जो उद्योग को छोड़ कर भाग्य पर भरोसा करते हैं वे अपने ही दुश्मन है।"
"दैव मूर्ख लोगों की कल्पना है। बुद्धिमान लोग पुरुषार्थ द्वारा उन्नति करके अच्छे पद प्राप्त करते हैं।
"जीने और चेतन होने के कारण ही यह ;जीव' कहलाता है। पुरुषार्थ के के कारण ही जीव 'पुरुष' कहलाता है।"
"यदि संसार में आलस्य रुपी अनर्थ न होता तो कौन धनी और विद्वान् न होता।"
"अपने ही प्रयत्न के सिवा कभी और कोई हमको सिद्धि देने वाला नहीं है।"
"ऐसा विचार करके दुखी न हो कि भाग्य का लिखा मिटाया नहीं जा सकता।"
"पुरुषार्थ के चार क्रम होते हैं, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष।"
"शम, संतोष, साधु-संग {योगामृत} और विचार ये मोक्ष के चार द्वारपाल हैं जो मोक्ष रुपी महल का दरवाजा खोल देते हैं।"
"कर्म ही पुरुष है और पुरुष ही कर्म है। ये दोनों इस प्रकार अभिन्न हैं जैसे बर्फ और उसकी शीतलता।"
"गुरु के उपदेश और शास्त्र के अध्ययन से भी आत्म-ज्ञान नहीं होता। अधिकारी, {उचित पात्र} शास्त्र और गुरु तीनों का संयोग होने पर ही आत्मानुभव का प्रकाश होता है।"
कुपात्र को सत्य का ज्ञान नहीं दिया जा सकता।
"किसी के लिए योग मार्ग कठिन है, किसी के लिए ज्ञान मार्ग। ज्ञान निश्चय का अभ्यास ज्यादा सुगम है।"
"चित्त को शान्त करने के दो उपाय हैं। एक 'योग' और दूसरा 'ज्ञान'। योग का अर्थ है 'चित्त की वृतियों का निरोध {प्रतिरोध} करना और ज्ञान का अर्थ है यथा स्थिति वास्तु को जानना।"
"युक्तियुक्त बात तो बालक की भी मान लेनी चाहिए, लेकिन युक्ति से च्युत को तृण के समान त्याग देना चाहिए, चाहे वह ब्रह्मा ने क्यों न कही हो।"
"जिस प्रकार ब्रह्मा की उत्पत्ति होती है उसी प्रकार कीड़े की होती है। ब्रह्मा से लेकर चींटी तक सब जीवों का लय केवल सद्ज्ञान द्वारा ही होता है।"
"जैसे सूर्य दिन के कामों का कारण है वैसे ही ईश्वर कुछ करता हुआ भी सब कुछ करता है। आदि और अन्त में जो नित्य है वही 'सत्य' है। दूसरा नहीं।"
"ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय, दृष्टा, दर्शन और दृश्य तथा कर्ता, कारण और क्रिया इन सबका जिनसे ही आविर्भाव {प्रकट होना} होता है, उन ज्ञान-स्वरूप परमात्मा को नमस्कार है।"
जैसे बालक को वास्तव में न होता हुआ भूत मौत तक का दुःख देता है, वैसे ही मूड बुद्धि वाले के लिए यह जगत दुःख देने वाला है।"
"जब मन विषय से गर्भित होता है, तब वह 'मन' कहलाता है। जब मन निश्चय को धारण करता है तो बुद्धि कहलाता है। 'मैं हूँ' इस भावना के होने पर मन 'अहंकार' कहलाता है। जब मन विषय का चिंतन करता है तब वह 'चित्त' कहलाता है।
"जिसमें बुद्धि का पूरा प्रकाश नहीं हुआ है उसे 'सब कुछ ईश्वर है' का उपदेश नहीं करना चाहिए क्योंकि वह भोग की दृष्टि से इसे काम में लेकर नाश प्रवृत होगा।"
"जिस मार्ग से जिस मानव की उन्नति होती है, उस मार्ग से चले बिना उसकी गति न शोभा देती है, न सुख देती है, न उसके हित के लिए है और न उत्तम फल देने वाली है।"
सागर के कुछ मोती मैंने कोशिश की उनसे बिखरती किरणें हमारा दिमाग रोशन कर दें। आप जैसे-जैसे इन्हें बार-बार पढ़ोगे वैसे हर बार एक दिशा, नया होंसला भी मिलेगा और यह भी आभास हो सकता है कि इनमें से कुछ पहले भी कहीं सुना है। जरूर ऐसा ही होगा और होना भी चाहिए।
सारे जगत में पावन योगविशिष्ट का ही ज्ञान प्रकाशमान है। इच्छाओं और दुःख की यही बातें करते आपको बुद्ध मिल सकते हैं। वह ज्ञान माँ सुजाता ने दिया था बुद्ध को। जब बुद्ध मात्र एक शंकाओं में फंसे हुए राजकुमार थे तब माँ सुजाता ने योगविशिष्ट का जो ज्ञान अर्जित कर रखा था वह बुद्ध को दिया।
एक शब्द गुरुवाणी में अंकित है, "रे मन ऐसो करि सन्यासा......... इसको जब आप पूरी शिद्दत के साथ श्रवण करोगे और योगविशिष्ट में दी गई संत-संन्यास की परिभाषा का अध्ययन करोगे तब सद्बुद्धि कहेगी कि एक ही विचार है। केवल दो भाषाओं में कहा गया है।
मानवता को प्रमुख रख कर जिसने भी धर्म की बात की उसका झुकाव स्वभाविक रूप में पावन योगविशिष्ठ की तरफ चला गया। हिन्दी ग्रन्थ अकादमी राजस्थान ने अपने शोध ग्रन्थ 'संत कबीर' {वर्ष 2000} के पृष्ठ 44 पर लिखा है, " योगविशिष्ठ ने प्रत्येक भारतीय संत तथा उनकी काव्य वाणी को प्रभावित किया है।"
इसी 'संत कबीर' शोध ग्रन्थ में लिखा है, " योगविशिष्ठ की अमृत वाणी से भाव-विभोर हो कर ऋषि, मुनि तथा संतों ने 'अमृतानुभव' लिया।" तमाम विद्वानों का मत है, "जो बातें इस योगविशिष्ठ में हैं वे ग्रन्थों में भी मिलेंगी। जो इसमें नहीं है वे कहीं नहीं मिलेंगी। विद्वान् योगविशिष्ठ को सब विज्ञानं-शास्त्रों का कोष कहते हैं।"
इसी विषय पर यह मेरा दूसरा प्रयास है। इससे पहले "आदिकवि वाल्मीकि के कुशी-लव क्यों हुए रक्षस से भंगी" सवाल जवाब बना कर लिखी थी। कोशिश तब भी यही थी कि जिसकी कलम से पाखण्ड पर प्रहार हुआ, जिसने निष्पक्ष भाव से धर्म के मायने दिए उसे ही शंकाओं के घेरे में खड़ा करने का दुःसाहस किया जा रहा है।
कोई पूरी जाति, कौम या मज़हब न एकदम गलत हो सकता है न ही उसके सारे लोग ठीक हो सकते हैं। जैसा कि परमेश्वर वाल्मीकि दयावान कहते, "हमारा स्वभाव ही हमारा धर्म है। जो अच्छा और बुरा कुछ भी हो सकता है। इसलिए जो लोग करुणासागर वाल्मीकि दयावान पर सवाल उठाते हैं व्ही गलत हैं कोई जाति नहीं। ऐसे साज़िशी लोग वाल्मीकि कौम में भी हैं।
किसी के मन को ठेस लगे तो मुझे अफ़सोस है किन्तु मेरा उद्दम मात्र इतना है कि उचित व प्रामाणिक तथ्यों को जनसाधारण के आगे रखूं। हिम के समान निर्मल और निष्पाप विश्वेशर वाल्मीकि दयावान की छवि को न हम दूषित कर सकते हैं न स्वच्छ। इतनी चेष्टा है कि इस अँधेरे से बाहर आकर हम उनके ज्ञान से प्रकाश की तरफ बढ़ें।
No comments:
Post a Comment