निर्माणकर्ता कहें, मज़दूर कहें शिल्पकार, श्रमजीवी या विश्वकर्मा ! परमेश्वर वाल्मीकि दयावान ने अपनी कलम से मेहनतकश को लिखा था कर्मा और विश्वकर्मा। कर्म शब्द जो आया पुरुषार्थ से। जिसे सिख गुरुओं द्वारा किरत कहा गया। पूंजीवाद के विकास ने हर निर्माणकर्ता को मज़दूर बनने के लिए मज़बूर कर दिया।
भारत में मज़दूर को जातियों में बंद कर दिया गया, आगे इस पर चर्चा होगी।मज़दूर शब्द जो आज सीधा प्रभाव यह देता है कि कोई मज़बूर अदना-सा या प्रवासी। अगर अर्थ शास्त्र के मुताबिक देखा जाए फिर मज़दूर की परिभाषा होती है, मज़दूर कहें शिल्पकार या श्रम की सेवा के लिए दिया गया मूल्य (कीमत) मजदूरी है। (मार्शल)"
ऐसे भी कह सकते हैं जिस श्रम {काम} की हम कीमत वसूल करें वह मज़दूरी।अर्थशास्त्र में, "श्रम" शब्द का व्यापक अर्थ है। इसका मतलब केवल मैनुअल {शारीरिक} श्रम नहीं है। इसमें मानसिक कार्य भी शामिल है। इस प्रकार यह मजदूरों, इंजीनियरों, क्लर्कों, टाइपिस्टों, प्रबंधकों, पुलिसकर्मियों और अन्य सरकारी अधिकारियों, शिक्षकों, वकीलों, घरेलू नौकरों आदि के काम को स्वीकार करता है।
यदि कोई पुरुष स्वास्थ्य के लिए व्यायाम करता है, यदि कोई माँ अपने बच्चे का पालन-पोषण करती है, तो एक पिता अपने बेटे को पढ़ाता है, या यदि कोई पुरुष अपनी खुशी के लिए फूल लगाता है - तो उसे अर्थशास्त्र में "श्रम" नहीं माना जाता है। आश्रम भी इसी बुनियाद पर थे। आ+श्रम यही स्वेच्छा से। इसे सिख इज़्म में कहा गया कार-सेवा।
भारत में मनु ने सबसे घिनौना और अमानवीय कुकृत्य किया कि हाथ से काम करने वाले हर स्वाभिमानी शख्स को शूद्र घोषित कर दिया था। अर्थात दास यानि गुलाम। भारत के बाहर भी सामंतवाद ने गुलामी की प्रथा बनाई। मगर उसका रूप भारत के दासों से भिन्न था। उन पर जातिवाद थोपा नहीं गया था।
एक गुलाम अल्तमश का नाम जब इतिहास में आता है तब हम देखते हैं कि गुलाम जरूर उसे कहा गया मगर ऐसा नहीं कि कोई उसकी परछाई से नफरत करे। सत्ता और शक्ति का युद्ध तो मानव हमेशा से लड़ता रहा है और वो अल्तमश को भी लड़ना पड़ा। गुलामी का सिलसिला बहुत देर तक संसार ने झेला।
अब हम विचार यह करेंगे कि आखिर एक कारीगर, शिल्पकार, विश्वकर्मा, किरति, जिसमें शामिल था लोहे को पिघला कर हल और तलवार बनाने वाला, धरती का सीना चीर फसल पैदा करने वाला, कपास का धागा बना लोगों का तन ढकने वाला और सिंगार के जेवर बनाने वाला भी कैसे सब मज़दूर और भारत में शूद्र बन गए ?
यह सब विकास से उपजा विकार था जिसने मानवता का विनाश ही कर दिया। इसको ऐसे समझें। एक आदमी लोहा पिघलाने के भट्ठी में कोयला दाल रहा है, दूसरा नीचे से हवा कर रहा है, तीसरा लोहे की छड़ को निकाल हथोड़े से आकार दे रहा है। अब यहाँ कम-से-कम तीन काम करेंगे। यह तीनों एक परिवार है।
जैसे ही किसी ने अपने पैसे के बल पर इनके आगे यह प्रस्ताव रखा कि तुम तलवार या हल बनाते हो मगर तुम्हें ग्राहक का इंतज़ार करना पड़ता है। तुम मेरे पास आओ यही अपना मन-पसंद काम करो और रोज़ अपना मेहनताना ले लो। ऐसे कई कारीगरों की मेहनत और हुनर के बल पर पूंजीपति बन जाता है उद्योगपति।
अब आप इसे हर तरह की दस्तकारी के साथ जोड़ कर समझ सकते है। यही क्रिया लोहार के साथ हुई और यहॉ लकड़ी का सामान बनाने वाले बढ़ई और मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कुम्हार से लेकर हर किसी के साथ हुआ। इस प्रकार मांग और उत्पादन के बीच के उतार-चढ़ाव को न समझने वाला कारीगर ही मज़दूर बन गया।
किसान के साथ भी ऐसा ही दुखांत हुआ। मौसम पर निर्भर होने और किसी मुश्किल समय में सूदखोर से कुछ पैसे ले लेता था। उसकी यह उधारी ज़मीन देकर भी पूरी नहीं होती थी। किसान को अपने ही खेत में मज़दूर बन कर काम करना पढता था। इस तरह किसान मज़दूर और सूदखोर ज़मीदार बन जाता था।
इसके बाद मशीन का युग आ गया। एक डोरी को खींच कर भट्ठी को हवा दी जा सकती थी। एक पहिया घुमा कर तलवार की धार बनाई जाने लगी। इस तरह कई एक लोगों की भूमिका कहें या कमाई समाप्त होने लगी और जब बिजली से मशीनें चलने लगी तब तो एकदम जैसे भूचाल ही आ गया।
इसके बाद 1750 में योरुप में औद्योगिक क्रांति कहें या आम आदमी के लिए गुलामी आ गई। मशीनों के कारण होने वाले जान-माल के नुक्सान का भी ख्याल नहीं रखा जाता था। एक और तरह के गुलाम बनने लगे उद्योगों के लिए कोयला निकलने वाले बंधुआ मज़दूर।
इनका जन्म-मरण सब कोयला खदान और जहाजों के तयखाने में ही हो जाता था।12 से 18 घंटे काम लिया जाता था। इसका अनुमान अगर लगाएं या उस स्थिति का अनुभव करके देखें तो बेहद खौफनाक मंजर उभर कर आता है। लोग परिवारों खासकर बच्चों से कटने लगे। यह एक तरह का जैसे समाज से बेदख़ल कर दिया हो। यह पीड़ा और नाइंसाफी आक्रोश पैदा करने लगी।
धीरे-धीरे मज़दूरों का गुस्सा आक्रोश में बदलने लगा। सर्वप्रथम 1789 में स्पार्टक्स नामक गुलाम के नेतृत्व में इतना सशक्त आंदोलन उठा कि रोमन साम्राज्य की जड़े उखाड़ दी गई और इसी आंदोलन ने फ़्रांस की राजशाही को समाप्त किया। परिणाम यह आया कि फ़्रांस में प्रजातंत्र कायम हो गया।
अमरीका के फिलाडेल्फिया में सन् 1806 में चमड़ा फैक्ट्रियों के मज़दूरों ने ऐतिहासिक हड़ताल की। मगर इसे बुरी तरह कुचल दिया गया। इसके बाद ‘मैकेनिक्स यूनियन ऑफ फिलाडेल्फिया’ नमक मज़दूर यूनियन की स्थापना हुई। अनुमान है कि यह श्रमिकों का प्रथम संगठन था।
1827 में ‘मैकेनिक्स यूनियन ऑफ फिलाडेल्फिया" ने आंदोलन की शुरुआत की। जिसकी मांग थी कि काम की अवधि 10 घंटे की जाए। जब आन्दोलन तेज़ होने लगा और अपना दबाव बनाने लगा तब मज़बूर हो कर वॉन ब्यूरेन की संघीय सरकार को इस मांग पर अपनी मुहर लगाने को विवश होना ही पड़ा।
उस वक्त की हकीकत आज से बहुत अलग थी। मजदूरों के श्रम पर सामंतों और राजाओं का अधिकार था। राजा और सामंत मजदूरों को अपनी संपत्ति समझते थे। श्रमिक, किसान और हस्तशिल्पियों का अपना कोई व्यक्तिगत अस्तित्व नहीं था। वे मालिक के दास हुआ करते थे। उस जमाने में मजदूरों की खरीद-बिक्री होती थी।
वर्ष 1868 में इस मांग के ही ठीक अनुरूप एक कानून अमेरिकी कांग्रेस ने पास कर दिया। अपनी मांगों को लेकर कई श्रम संगठनों ‘नाइट्स ऑफ लेबर’, ‘अमेरिकन फेडरेशन ऑफ लेबर’ आदि ने जमकर हड़तालों का सिलसिला जारी रखा।
ऐसे खौफनाक हालातों में संघर्ष करना बहुत मुश्किल था। मगर स्पार्टकस नाम के गुलाम के विद्रोह ने जहाँ फ़्रांस में दासत्व को समाप्त किया वहीँ ये क्रान्ति की हवा आज़ादी की उम्मीद बन कर सारे योरुप से अमेरिका तक फैलने लगी। यही से मई दिवस की बुनियाद पड़ने वाली थी।
अमेरिका में भी श्रमिकों ने अगस्त,1866 में राष्ट्रीय श्रम संगठन यानि ‘नेशनल लेबर यूनियन’ को स्थापित किया। इसी यूनियन के बैनर तले ‘काम के घण्टे आठ करो’ आन्दोलन शुरू कर दिया। मगर जैसा हम उस वक्त की राजनीतिक दशा को समझते हैं यह आसान नहीं था।
मई दिवस की शुरआत होती है 1886 तीन दिवसीय हड़ताल से है। दरअसल, शिकागों के इलिनोइस (संयुक्त राज्य अमेरिका) में इसका आयोजन किया गया था। इसमें 80,000 से अधिक आम मजदूरों, कारीगरों, व्यापारियों और अप्रवासी लोगों ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया।
हकीकतन 1 मई 1886 को ही मजदूर आंदोलन ने इतिहास की पुरानी मान्यता को मिटाया था। हड़ताल के तीसरे दिन मेकॉर्मिक हार्वेस्टिंग मशीन कंपनी के अन्दर घुड़ कर पुलिस ने मज़दूरों पर गोलियां चलनी शुरू कर दी। जिसमें 6 आंदोलनकारी मारे गए और सैंकड़ों घायल हो गए। विद्रोह और भड़क उठा।
4 मई को हेमार्केट स्क्वायर में मज़दूरों भारी संख्या में इकट्ठे हो गए। पुलिस भी भारी मात्रा में पहुँच गई। कहा जाता है एक विस्फोट हुआ। जिसके बाद मज़दूरों और पुलिस में एक तरह का खुनी संघर्ष शुरू हो गया। जिसमें सात पुलिस कर्मी और चार मज़दूर मारे गए। सैंकड़ों लोगों पर मुकदमें दर्ज़ किये गए।
न्यायाधीश श्री गैरी ने 11 नवम्बर, 1887 को जब अपना फैसला सुनाया तब उनकी आवाज़ कंपकपा रही थी और ज़ुबान लड़खड़ा। ग़मगीन-सी आवाज में चार मजदूर नेताओं स्पाइडर, फिशर, एंजेल तथा पारसन्स को मौत और अन्य कई लोगों को लंबी अवधि की कारावास की सजा सुनाई।
सज़ा जरूर हुई मगर मज़दूरों का होंसला तोड़ न सकी। इस ऐतिहासिक घटना को यादगार बनाने के उद्देश्य से वर्ष 1888 में अमेरिकन फेडरेशन ऑफ लेबर ने इसे मजदूरों के बलिदान को स्मरण करने और अपनी एकता को प्रदर्शित करते हुए अपनी आवाज बुलन्द करने के लिए प्रत्येक वर्ष 1 मई को ‘मजदूर दिवस’ के रूप में मनाने का निर्णय लिया।
जिस तरह से मज़दूर आन्दोलन विश्व में फैलने लगा वहीँ पर तमाम मज़दूर संगठनों ने अपनी एकजुटता और ताकत बढ़ाने के लिए 14 जुलाई, 1888 को फ्रांस की राजधानी पेरिस में अंतराष्ट्रीय समाजवादी संगठन की स्थापना की। यहीं पर सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित किया गया कि कार्य अवधि अधिकतम आठ घण्टे ही होगी।
इंग्लैंड में पहली बार 1890 में 1 मई को मज़दूर दिवस के रूप में मनाया। संघर्ष चलता रहा। आखिर 1917 का वो समय आया रशियन क्रांतिकारी ब्लादिमीर लेनिन के नेतृत्व में रूस में बोल्शेविक क्रांति हुई और वहां से भी जारशाही यानी राजशाही का अंत हो गया। जिसे मज़दूरों के लिए स्वर्णिम दौर कहा जाता है।
वर्ष 1919 में अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन {ILO} वज़ूद में आया। अपने अधिवेशन में प्रस्ताव रखा कि सभी औद्योगिक संगठनों में कार्यावधि अधिक-से-अधिक आठ घंटे निर्धारित हो। वर्ष 1935 में अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन {ILO} ने आठ घंटे की अवधि को घटाकर सात घंटे की अवधि का प्रस्ताव पारित करते किया।
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन {ILO} ने अपने प्रस्ताव यह भी कहा कि एक सप्ताह में किसी भी मजदूर से 40 घंटे से अधिक काम नहीं लिया जाना चाहिए। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन {ILO} के इस प्रस्ताव को आज भी बहुत सारे विकसित और विकासशील देश मानते हैं। इससे कारकुशलता बढ़ती है।
भारत में मई दिवस पहली बार 1923 में मनाया गया और चीन में 1924 में मनाया गया। भारत का मई दिवस वैसे ही रहा जैसा सफाई दिवस पर सफाई कामगार ही उपेक्षित रहता है। भारत की भूगोलीय राजनीति कार्ल मार्क्स के नारे,‘‘दुनिया के श्रमिकों एक हो जाओ" के एकदम विपरीत थी।
कार्ल मार्क्स चाहते थे कि ऐसी सामाजिक व्यवस्था स्थापित हो, जिसमें लोगों को आर्थिक समानता का अधिकार हो और जिसमें उन्हें सामाजिक न्याय मिले। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को कार्ल मार्क्स समाज व श्रमिक दोनों के लिए अभिशाप मानते थे। यह भारत के बाहर संभव था, भारत में नहीं।
वंशदानी डॉ आंबेडकर भारतीय कम्युनिस्टों को बंच आफ द ब्राह्मण बायज कहते थे और अफसोस करते थे कि गरीब और मजदूरों की मुक्ति का एक क्रांतिकारी आंदोलन भारत में गलत हाथों में आकर बेकार हो गया। बाबा साहिब डॉ अम्बेडकर का मानना था की कार्ल मार्क्स का सोचना कहीं भी गलत नहीं था।
डॉ. आंबेडकर चाहते थे “मजदूर वर्गों के हर व्यक्ति को रूसों का ‘सामाजिक अनुबंध’, मार्क्स का ‘कम्युनिस्ट घोषणापत्र’ पोप लियो तेरहवें का ‘मजदूरों की स्थिति पर जारी परिपत्र’ एवं जान स्टुअर्ट मिल के स्वतंत्रता पर विचारों की जानकारी रखनी जरूरी है, क्योंकि ये चारों आधुनिक समय के समाज और सरकारी संगठन के कार्यक्रम सम्बंधी मूल दस्तावेज हैं।” {सोहन लाल शास्त्री}
विश्व ज्ञान प्रतीक डॉ अम्बेडकर कहते हैं कि अगर भारत में कम्युनिस्ट सत्ता स्थापित करते हैं तो जिन तीन बड़ी ताकतों की जरूत होगी, एक सेना, दूसरा प्रशासनिक मशीनरी, तीसरा मज़दूर वर्ग। जैसा कि भारत में सेना तथा प्रशासनिक सेवाओं पर ब्राह्मणों, बनिया और सामंतों का एकाधिकार है। उस वक्त कागज़ों में कार्ल मार्क्स व मन में मनु होगा।
डॉ भीम राव अम्बेडकर ने अपने कथन की पुष्टि में तेलंगाना का उदाहरण दिया था, जहां अछूत खेत मजदूरों ने बड़े जमींदारों की भूमि छीनने में साम्यवादियों {कम्युनिस्ट} के साथ मिलकर संघर्ष किया था। उनमें सैकड़ों अछूत मजदूर मारे भी गए थे। लेकिन जब भूमि के बंटवारे का समय आया तो ऊंची जाति के कम्युनिस्टों ने अछूत मजदूरों से कहा कि –
“तुम्हारी मजदूरी हम दुगनी कर देंगे, पर तुम्हें भूमि का मालिक नहीं बनाया जा सकता।” वहां छीनी गई भूमि कम्मे और रेड्डी जमींदारों को दे दी गई। डॉ.आंबेडकर ने पूछा, क्या यही उदाहरण सारे भारत में कम्युनिस्ट राज स्थापित होने पर चरितार्थ नहीं होगा?
कम्युनिस्ट पार्टी का साधारण कार्डधारी सदस्य बनने के लिए गरीब मज़दूर को वर्षों अपनी ईमानदारी सिद्ध करने में लग जाते थे। शायद इसलिए कि जैसा मनु ने समझाया था कि अछूतों को सत्ता, शक्ति धन से दूर रखो .मगर एक ब्राह्मण परिवार में जन्मे और वानर सेना तथा संघ में सक्रीय दत्तोपंत ठेंगड़ी को दूसरा ब्राह्मण पी. वाय. देशपाण्डे खुद आमंत्रित करता है।
विश्व ज्ञान प्रतीक डॉ आंबेडकर की शंकाओं को सत्यापित करते हुए मात्र छे वर्षों (1949 से 1955) में कम्युनिस्ट पार्टी के श्रमिक घटकों का शीर्ष पदों पर पहुँच गया। अधिकाँश लोगों को तो इतने वर्षों में कैडर सुनने का अधिकार भी नहीं दिया जाता था।
मगर दत्तोपंत ठेंगड़ी को ब्राह्मण होने का अतिरिक्त लाभ दिया गया।परिणाम यह आया कि सारा संगठनात्मिक ढाँचा देखने और विश्वास बनाने के बाद दत्तोपंत ठेंगड़ी आखिर 23 जुलाई 1955 को, भोपाल में, भारतीय मजदूर संघ की और एक अखिल भारतीय केन्द्रीय कामगार संगठन के रूप में स्थापना की गई।
राष्ट्रवादी कट्टरतवादी दत्तोपंत ठेंगड़ी ने नारा दिया, "देश के हित में करेंगे काम, काम के लेंगे पूरे दाम"यही दुखांत है भारत का कि कभी सम्पूर्ण भारत बन कर या एक इंसान बन कर सोचा ही नहीं गया। आप आर्यों के बाद के सारे इतिहास पर नज़र दौड़ा कर देख लीजिए। भारत की हार कारण भारत में जातिवादी लोग ही रहे। चाहे मंगोल आए, मुग़ल या अंग्रेज़ आदि हर समय भारत बिखरा हुआ मिला। कारण मनु का लगाया जातिवाद का बीज।
जैसा डॉ अम्बेडकर उस वक्त सर्वहारा आंदोलन पर अफसोस करते थे कि गरीब और मजदूरों की मुक्ति का एक क्रांतिकारी आंदोलन भारत में गलत हाथों में आकर बेकार हो गया। ठीक ऐसा ही 2011 में जब सारा विश्व परिवर्तन की करवट ले रहा था तब अन्ना हज़ारे ने उस आन्दोलन को कट्टरपंथि संघियों की झोली में जाने दिया।
कट्टरपंथी हिन्दू सोच कभी मज़दूर का भला नहीं कर सकती। कट्टर हिन्दुत्व का अर्थ हुआ कि वह सनातनी सोच जिसे मनु ने स्थापित किया को ही मान कर चलेगा। गौतम धर्म सूत्र कहता है, "यदि शूद्र जप ,तप, होम करे तो राजा द्वारा दंडनिय है। (12/4/9) "मनुस्मृति" के अनुसार, "शूद्र का कमाया धन ब्राह्मण को बलात् छीन लेना चाहिए।"
भेदभाव अमेरिका में भी था। मगर वहां भारत की तरह उनके धर्म ग्रंथों ने नहीं सिखाया था। वहां जातिवाद नहीं। जैसे अछूत, शूद्र भील आदि। अमेरिका में नस्लवाद है यानि रंग भेद है काले और गोर का। अमेरिका के नस्लवाद को लेकर लड़ाई आज भी जारी है मगर भारत से एकदम भिन्न।
यहाँ देखिए ऐसी मिसाल कि पशोपेश में डाल देगी। अपने पिता के साथ डॉ॰ मार्टिन लूथर किंग, जूनियर एक जूते की दुकान में जा कर पिता पुत्र दोनों पहली पंक्ति के बैंच पर बैठ गए। कुछ देर बाद एक श्वेतांग युवक आया और उसने धीरे से कहा, "मुझे आपकी सेवा करके बड़ी खुशी होगी, अगर आप यहां से उठकर पीछे की बेंचों पर चले जाएं।"
अब ऐसी ही कल्पना भारत में कीजिए। जैसे तालाब या कुएँ से पानी लेना या शादी के समय घोड़ी पर बैठना या याद कीजिए वीर बालक एकलव्य को। अमेरिका का सेल्ज़ मैं कितनी शालीनता से कहता है। एक तरह से वो प्रार्थना ही कर रहा था और भारत का द्रोणाचार्य जो शिक्षक है, संत है वो कहता है,"यहाँ से निकल जा नीच, तू अछूत है बाहर निकल।"
27 मई 2020 को एक काले शख्स जॉर्ज फ्लोयड George Floyd की गर्दन को अपने घुटने से दबा कर सांस रोक दी। जिससे जॉर्ज फ्लोयड की मृत्यु हो गई। इस घटना से अमेरिका में उबाल आ गया। सामाजिक बदलाव यह भी देखने को मिला कि सड़कों पर प्रदर्शन करने वालों में गोर ज्यादा थे। राष्ट्रपति ट्रम्प की बेटी भी।
1 दिसंबर, 1955 को, एक ऐसी ही घटना हुई जब रोजा पार्क्स को सिटी बस में अपनी सीट छोड़ने से इनकार करने के लिए गिरफ्तार किया गया था। इस डॉ॰ मार्टिन लूथर किंग, जूनियर ने आन्दोलन शुरू कर दिया जो पूरे 381 दिनों तक चले इस सत्याग्रही आंदोलन के बाद अमेरिकी बसों में काले-गोरे यात्रियों के लिए अलग-अलग सीटें रखने का प्रावधान खत्म कर दिया गया।
अपने जीवन के अंतिम दिनों में डॉ॰ मार्टिन लूथर किंग, जूनियर ने सफाई कर्मचारियों के लिए संघर्ष प्रारम्भ किया। नतीजा यह कि वो आन्दोलन सारे अमेरिका में फ़ैल गया। इसी आंदोलन को लड़ते हुए अमेरिका के अम्बेडकर डॉ॰ मार्टिन लूथर किंग, जूनियर की 4 अप्रैल 1968 को गोली मार कर हत्या कर दी गई।
मगर सारे कथित भगवानों की जन्म स्थली भारत में स्थिति इसके विपरीत है। यहाँ हर जाती अपना आन्दोलन खुद लड़ती है। नियम तो यह भी रहा कि चाहे कुछ भी हो जाए लड़ने काम ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र व अछूत कभी नहीं करेंगे। इसी कारण सोमनाथ मंदिर लुटता रहा।
जब लोग लोकतंत्र की बात करते हैं तो अरस्तु या जॉन स्टुअर्ट मिल की मिसाल प्रस्तुत करते हैं। लोकतंत्र की सबसे प्रसिद्ध और सुपरिचित परिभाषा दी जाती है “लोगों का लोगों द्वारा और लोगों के लिए ” शासन। यह बात अब्राहम लिंकन जैसे महान व्यक्ति ने कही। जिसने सबसे पहले अपने गुलामों को आज़ादी दी।
भारत की बात करें तो भारत को धर्म परिवर्तन या धर्म का ट्रेड फेयर स्थल भी कहा जा सकता है। यानि आप ईसाई, मुस्लिम, सिख, बौद्ध या राधा-स्वामी, निरंकारी सच्चा-सौदा आदि कुछ भी बन सकते हो मगर ! मगर केवल प्रवचन के मैदान तक। फिर आपकी बस्ती, आपकी जाति वो बनी रहेगी।
अब्राहम लिंकन हो, सुकरात या कार्ल मार्क्स भारत में सब फेल। लोकतंत्र किसी परिभाषा से बंधा नहीं हो सकता। लोकतंत्र किसी जगह के लोगों के स्वभाव पर निर्भर है। अगर कानून के डंडे से लोकतंत्र चलाएंगे तो वो तानाशाही जैसा कुछ बन जायेगा। लोकतंत्र के लिए अब्राहम लिंकन जैसा दिल भी चाहिए।
1996 में हरियाणा के सर्वकर्मचारी संघ ने हड़ताल की घोषणा कर दी। यह एकदम नासमझी वाला कदम था। हड़ताल सभी विभागों के सभी कर्मचारियों के लिए थी मगर सारा ज़ोर सफाई कर्मचारियों से लगवा दिया गया। हज़ारों सफाई कर्मचारी जेलों में चले गए।
रोहतक में बड़ी रैली रखी गई कॉमरेड हरकिशन सुरजीत आये सम्बोधन करने। रैली कर्मचारियों के नाम पर बाकि सब मंच पर मौजूद थे एक सफाई कर्मचारी प्रतिनिधि को छोड़ कर। यह उस कौम के साथ हुआ जिसकी सैंकड़ों औरतें जेल में थी और कई ने बच्चों को जन्म जेल में दिया। मांग क्या थी ? मेहनताना !
हज़रत अली {हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम} का मशहूर जुमला है, 'मज़दूरों का पसीना सूखने से पहले उनकी मज़दूरी दे दो।" (कुरआन : 34-11) सृष्टिकर्ता वाल्मीकि दयावान कहते हैं, "तीन लोकों में ऐसा कोई पदार्थ नहीं है जो उद्वेग रहित पुरुषार्थ द्वारा प्राप्त न किया जा सके।" अर्थात मेहनताना जरुरी है। गीता श्रम सिद्धांत के विपरीत बंधुआ मज़दूर की बात करती है।
मज़दूर आंदोलन का अर्थ मज़दूर का स्वार्थ नहीं होता। मज़दूर आंदोलन का अर्थ समानता, बराबरी, इन्साफ, लोकतंत्र व गणतंत्र के रूप में भी देखा जाना चाहिए। मगर भारत में कम्युनिस्ट पी. वाय. देशपाण्डे कॉमरेड से ज्यादा ब्राह्मण निकले और ब्राह्मण दत्तोपंत ठेंगड़ी ने सारे मज़दूर वर्ग को ठग लिया।
आज कोरोना काल में राजा राम का झंडा लकर सत्ता में आई संघ परिवार की सरकार एक बार फिर से मज़दूरों को उसी अमानवीय युग में ले जाने के लिए पूरी तरह कमर कस चुकी है। जैसे 12 घंटे काम करने और मज़दूर यूनियन व हड़ताल पर प्रतिबन्ध लगाना। इसी राष्ट्रवाद के लिए दत्तोपंत ठेंगड़ी ने साज़िश रची थी।
दुनियाँ के विकास के साथ-साथ इंसान का का एक जगह से दूसरी जगह पलायन भी हुआ। माईग्रेशन इस लिए भी हुई की गांवों या छोटे शहरों में रोज़गार के साधन कम होने की हालत में लोगों को एक जगह से दूसरी जगह जाना पड़ा। इससे उन्हें बहुत नुक्सान भी उठाना पड़ा।
भारत के अलग-अलग राज्यों में जैसे-जैसे नगरों का गठन कर स्थानीय निकाय बनाए गए। उसी वक्त से वाल्मीकि कौम {सफाई कामगार समाज} का पलायन शरू हुआ। यह राज्य सरकारों की तरफ से सफाई कार्य के लिए आमंत्रित {जब्बरी लाद कर भी} किया गया था। काम {नौकरी} दिया रहने को मकान दिए गए मगर इंसानी हक़ छीन लिए गए।
जम्मू-कश्मीर में धारा 370 को बहाना बनाया गया। मगर अभी तक यह नहीं बताया गया कि देश की हिस्सों में वाल्मीकि कौम {जिन्हें दूसरे राज्यों से आमन्त्रित किया गया था} उनके उन्हीं राज्यों में जन्में बच्चों को क्यों शिक्षा व नौकरी में संवैधानिक अधिकारों से महरूम रखा गया।
Domicile_Certificate मूल निवासी प्रमाण पत्र वाल्मीकि कौम {सफाई कामगार समाज} को उनके बच्चों के भविष्य हित क्यों जारी नहीं किया गया ? यह संगीन अन्याय कभी कम्युनिस्ट पी. वाय. देशपाण्डे कॉमरेड और संघी दत्तोपंत ठेंगड़ी के लिए मुद्दा बना ही नहीं।
बिना Domicile_Certificate कोई स्कूल कॉलेज प्रवेश देता ही नहीं।जाति है जो जाती नहीं। यह जुमला मार्क्सवादियों ने भी सिद्ध कर दिया। आखिर उसी जाति में जन्मे बाबा साहिब डॉ भीम राव अम्बेडकर को ही सफाई कर्मचारियों सहित सभी मज़दूरों के हित में उतरना पड़ा।
1938 में 7 नवम्बर को ट्रेड यूनियन कांग्रेस की हड़ताल में खुद डॉ अम्बेडकर उतरे।1941 में म्युन्सिपल कामगार यूनियन के अध्यक्षीय भाषण में सफाई कामगारों को सम्बोधन करते हुए वंशदानी डॉ आंबेडकर ने कहा,
"आप लोग अपने हाथों की विशाल ताकत को अनुभव नहीं कर पा रहे। मात्र आपके काम न करने से ही आप एक सप्ताह में ऐसी दुर्दशा और विनाश कर सकते हैं, जितना कि तीन माह के हिन्दू-मुस्लिम दंगे से भी नहीं होता।"
भले 1923 से भारत में मई मज़दूर दिवस मानना शुरू कर दिया था मगर 1942 में विश्व ज्ञान प्रतिक डॉ अम्बेडकर ने काम {श्रम} के 14 घंटे से 8 घंटे का कानून जारी किया। हमेशा डॉ अम्बेडकर मज़दूरों से जुड़ कर रहे। इसलिए 1939 में बनायीं पार्टी का नाम आज़ाद लेबर पार्टी रखा था।
हकीतन आपके दिल की पीड़ा आप पर प्रभावी है या दिमाग की कोई तिकड़म इस पर निर्भर करता है आपका काम और दिशा। जिनका हमेशा उदेश्य यह रहा हो कि येन-क्रेन-प्रकारेण सत्ता पर काबिज़ रहना है भले कितनों के सिर कट जाएँ या भविष्य मालिया मेट हो जाए।
"जिस तन लागे सो तन जाणे, दूजा कोई ना जाणे।" बुल्ले शाह का यह कथन एकदम सत्य की दिशा में है। आदिकवि वाल्मीकि सृजनहार भी यही कहते हैं, "सबसे विश्वसनीय मित्र - अपना हाथ" आज भी जो इस कोरोना काल में मज़दूरों के साथ हुआ संघीयों द्वारा, वैसा ही पश्चिम बंगाल में दलितों के साथ होता रहा।
पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट शासन के दौरान दलितों को मंत्रिमंडल में तरजीह देना उचित नहीं समझा। वैसे पार्टी मज़दूरों की है। शायद दलित उसके लिए मज़दूर की परिभाषा में ना आकर अछूत के दायरे में आते हो ? डी,राजा पहला वो शख्स है जिसे साम्यवादियों ने अपनी राष्ट्रीय कार्यकारिणी में लिया।
दलितों की समझ या कार्यकुशलता पर ब्राह्मण की तरह ही कम्युनिस्ट सोचते हैं। मगर इसके बावजूद पश्चिम बंगाल का विकास देखिए। कलकत्ता ही ले लीजिए बाकि महानगरों के मुकाबिले सबसे पिछड़ा हुआ दिखाई देगा। इसीलिए सत्ता हाथ से रेत की तरह निकल गई।
अब क्या रोल है कम्युनिस्टों का ? सत्ता तो आती जाती रहती है यही तो लोकतंत्र है मूल मन्त्र है। मगर इतने पगला गए कि ममता से बदला लेने के लिए अपनी पार्टी ही नहीं विचार-धारा छोड़ धर्म का झंडा उठा कर चल रही भाजपा के साथ हो लिए, वो जो सारी उम्र धर्म निरपेक्षता पर लम्बे भाषण देते रहे।दरअसल एक था मार्क्सवाद दूसरा था पुश्तैनी ब्राह्मणवाद।
हकीकत यह रही कि भारत का नेतृत्व भले किसी भी पार्टी का रहा हो वो या ब्राह्मणवाद, जातिवाद से मुक्त नहीं हो पाया या सत्ता हथियाने के लिए उसे लगा कि सिद्धांतों डालों गन्दे नाले में और सत्ता की कुर्सी पर बैठो चाहे वो कूड़े के ढेर पर हो या लाशों के।
गुरदास आलम जिनकी कलम की तपिश को आज भी महसूस किया जा सकता है। अपनी बेबाकी और हकीकत को कविता में कहने के अंदाज़ में गुरदास आलम का कोई सानी नज़र नहीं आता। आज़ादी के समय जब कौम बँट रही थी ज़मीनें बाँटी जा रही थी तब हमारे बारे क्या राय थी बड़े नेताओं की सुनिए गुरदास आलम जी की कलम से,
फड़के बन्दियाँ अते इलाकियाँ नूं , आपो अपनी तरफ नूं खिच रहे सी।आखिर गाँधी के खा जिनाह तांई, जिथों तक बणदी अपनी हद लै लो।हरिजनां नू छड के बंदयां दी, भावें सारे इस्लाम दी जद लै लो।
कायदे-आज़म ने कहा जनाब गाँधी, रकबा तुसीं भावें वद लै लो।
अछूत सांझे गुलाम है सारियां दे, जोड़-तोड़ करके अधो-अध लै लो।
गंभीरता और ईमानदारी से गौर फरमाएं तो आप पाएंगे कि दलित-आदिवासी {अछूत} को भेड़-बकरी की तरह देखा जा रहा था। जबकि सबसे हुनरमंद, मेहनतकशों की बात की जा रही थी। जिनके भी किसी राष्ट्र का निर्माण हो ही नहीं सकता।
यही कारण रहा कि जिसे परमेश्वर वाल्मीकि दयावान ने अपने महाकाव्य समायण में विश्वकर्मा अर्थात सबसे बड़ा मज़दूर भी सबसे उत्तम इंजीनियर भी, उसे हिन्दू जगत घृणा की दृष्टि से देखता है। जिसने रातो-रात लंका को दरुस्त कर दिया वो महारानी माँ मंदोदरी के पिता मई दानव थे।
मंदिरों, भगवानों, नदी-मईया और गौ-माता की बात करने वालों का ईमान तो पूरी तरह पूंजीपतियों के चरण-श्री में रखा हुआ है। जिस वक्त देश का गरीब मज़दूर कारीगर भूख-प्यास और साधनों के लिए तरस रहा था भारत की सरकार ने 68,000 करोड़ रुपए बैंकों से फ्रॉड करके भगोड़ों के खाते में डाल दिए।
किसी आन्दोलन या विचार की सफलता हमारे ईमान पर निर्भर करती है। भारत का अमीर आदमी ही नहीं सड़क पर पत्थर तोड़ता मज़दूर भी न जाने कब ठाकुर, तिवारी या हिन्दू मुस्लिम हो जाता है, इसी का लाभ उठाते रहे सदा गाँव के सूदखोर से पूंजीपति तक। जाति व धर्म के नाम पर मज़दूरों को लड़ा कर यूनियन तोड़ दी जाती। इस पतनशील मानसिकता से बाहर आये बिना हमें क़ामयाबी मयस्सर नहीं।
ऐसा ही किसान यूनियन को बनाने के बाद देखने को मिला। अचानक जब किसान की दशा या कुछ क़ानून-कायदे उसके हिट में आने लगे जैसे बैंक लोन और सब्सिडी जैसे उसी वक्त भारत का किसान जाट, ठाकुर, पाटिल और रेडी हो गया और खेत में काम करने वाला मज़दूर मज़हबी और मुसहर हो गया। यानि जात-पात बीच में आ गई।
जब दलितों के नाम पर अपनी ताकत का सपना परोसा गया डी.एस.4 के नाम पर जल्द ही बहुजन नाम का बड़ा पंडाल सजा लिया गया और उसमें बहुजनों का तो पता नहीं क्या हुआ। हाँ ! मगर सारे दलितों के नाम पर एक ही जाति का भला किया गया और यह हुआ कि दलित इतिहास व अस्मिता को दरकिनार कर क्षत्रिय बुद्ध ही एजेण्डे में रह गया।
धर्म या ईश्वर को मानने का अर्थ एक दूसरे से नफरत करना कैसे हो जाता है ? नफरत सीखने या पैदा करने वाले शब्दों को शास्त्रों के श्लोक या वाणी कैसे कहा जा सकता है ? इन सवालों पर सोचिए। इससे मानवता और खुद धर्म का भी भला हो जाएगा।
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